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कुछ पंक्तियां इस ब्लॉग के बारे में :

प्रिय पाठक,
हिन्दी के प्रथम ट्रेवल फ़ोटोग्राफ़ी ब्लॉग पर आपका स्वागत है.….
ऐसा नहीं है कि हिन्दी में अच्छे ब्लॉग लिखने वालों की कमी है। हिन्दी में लोग एक से एक बेहतरीन ब्लॉग्स लिख रहे हैं। पर एक चीज़ की कमी अक्सर खलती है। जहां ब्लॉग पर अच्छा कन्टेन्ट है वहां एक अच्छी क्वालिटी की तस्वीर नहीं मिलती और जिन ब्लॉग्स पर अच्छी तस्वीरें होती हैं वहां कन्टेन्ट उतना अच्छा नहीं होता। मैं साहित्यकार के अलावा एक ट्रेवल राइटर और फोटोग्राफर हूँ। मैंने अपने इस ब्लॉग के ज़रिये इस दूरी को पाटने का प्रयास किया है। मेरा यह ब्लॉग हिन्दी का प्रथम ट्रेवल फ़ोटोग्राफ़ी ब्लॉग है। जहाँ आपको मिलेगी भारत के कुछ अनछुए पहलुओं, अनदेखे स्थानों की सविस्तार जानकारी और उन स्थानों से जुड़ी कुछ बेहतरीन तस्वीरें।
उम्मीद है, आप को मेरा यह प्रयास पसंद आएगा। आपकी प्रतिक्रियाओं की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।
आपके कमेन्ट मुझे इस ब्लॉग को और बेहतर बनाने की प्रेरणा देंगे।

मंगल मृदुल कामनाओं सहित
आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी

Sunday 15 September 2013

काश, वक्त ठहर जाता


           काश, वक्त ठहर जाता


कायनात काजी
(मध्य प्रदेश के भोजपुर स्थित बेतवा नदी से लौट कर)

नदी के कलरव के बीच एक शांति थी
खुले आसमान के बीच, पक्षियों के कलरव के बीच
एक अजीब सी शांति...
ऐसा लग रहा था मानों शोर थक कर सो गया हो..
रात के सन्नाटे की तरह
खामोश...
पत्थरों पर बैठा एक आदमी नदी में काटा डाले तन्मय होकर मछली के फंसने का इंतजार कर रहा था
नदी के तेज बहाव ने खुरदरे पत्थरों को भी चिकना कर दिया था
हम वहीं पत्थरों पर बैठ गए...
पानी पत्थरों से टकराता हुआ बह रहा था..
अविरल... शांत... निश्छल...
सूरज सिर पर था
हम जहां बैठे थे, वहां पेड़ो की छाया पड़ रही थी.
मैने अपने जूते उतारे, पैंट के पांचे उपर चढाए..
और पानी में पैर डाल कर बैठ गई...
निगाहें आसमान पर टिका दी...
आमीन,
यह जगह कितनी सुंदर है...
बैठना कितना सुखद
मां की गोद सरीखा...
पानी की कल-कल किसी सुरमई गीत सरीखी सुनाई दे रही थी
पानी का स्पर्श
तन से मन तक को भिगो रहा था...
मेरी तरह आप भी अगर मन के कानों से इसे सुनोगो
तो ये पानी, ये हवाएं
ये प्रकृति का स्पर्श
सब गीत गाते मिलेगे...
हर चीज में लय है..
सुर है.. ताल है.. रिद्म है...
जरूरत है बस इसे महसूस करने की...
जहां हम बैठे थे वह स्थान न चौडा था न संकरा
पानी की धार देखकर ऐसा लगा  
जैसे बेतवा
किसी नव यौवना सी सकुचाती सी बह रही है..
मैने पानी की तस्वीरें ली
पानी का वेग बहुत सुंदर था..
सुंदरता इतनी कि कैमरा इसे कैद न कर पाए...
दुधिया पानी छोटे-छोटे पत्थरों से घुमड़ कर बह रहा था...
शायद इसे ही अंग्रेजी में कहते हैं मिल्की इफेक्ट...
सहसा मेरे शरीर में एक खुशनुमा सिहरन सी हुई
एक नया सा अनुभव हुआ
अरे यह क्या
मेरे पैरों से कोई छोटी सी मछली सरसराती हुई निकल गई
स्पर्श... बिलकुल नया, अनजाना सा
विद्युत की तरह, तन को झनझना देने वाला
प्रीतम के पहले स्पर्श सा
मादक.. मोहक..
स्मृति में सदा जीवित रहने वाला.. 
ऊपर नीला आसमान
क्वार का साफ आसमान
यहां-वहां तैरते बादलों के आवारा टुकडे अठखेंलिया करते हुए
लगता था ये वक्त यहीं ठहर जाए...
लेकिन यह तो दुनिया की रीति है
आए हैं तो जाना ही पड़ेगा...






Saturday 14 September 2013

बेतवा की मस्ती में जरा डूब के तो देखो


     बेतवा की मस्ती में जरा डूब के तो देखो


मैं एक फोटोग्राफर और साहित्यकार हूं. घूमने-फिरने का शौक बचपन से है. हमने बचपन में बहुत सारे शहर देखे और आज भी मैं अपने देश की विविधता पर मोहित हूं. आप किसी भी दिशा में निकल जाएं,देश के किसी कोने में चले जाएं, आपको हमेशा कुछ नया, कुछ अनोखा देखने को मिलेगा. जब आधी आबादी टीम ने मुझे कुछ लिखने को कहा तो मेरे मन में आया कि आप के साथ अपनी यात्राओं के अनुभवों साझा करूं. मैं स्वभाव से घुमक्कडी हूं और नए लोगों से मिलना और उनसे बातें करना मुझे बहद पसंद है. उनके जीवन को करीब से देखना और हो सके तो उनके जीवन का हिस्सा बनना, मुझे खूब सुहाता है. महिलाओं और बच्चों की निर्मल हंसी मुझे आकर्षित करती है. मैं शहर-दर-शहर  भटकती रहती हूं...कभी पहाड़ों पर, कभी बीचों के शहर गोवा, तो कभी राजस्थान के रंग और संस्कृति को समेटने जोधपुर, जयपुर, पुष्कर...  पहाड़ों के झरने और उनमें बहती नदियां मुझे आमंत्रित करते रहते हैं.    उनके किनारे घंटो गुजराना मानों स्वर्ग-सा लगता है. फोटोग्राफी के जुनून ने मुझे यायावर बना दिया है. मुझे अलग-अलग प्रदेशों के संस्कृतिक उत्सवों की तस्वीरें खींचना बेहद पसंद है .
लोगों से मिलना, घूमना हम सभी को अच्छा लगता है. यह तो मनुष्य का स्वभाव है. पर सब लोगों को शायद यह अवसर नहीं मिल पाता. खास कर महिलाओं को. उनके ऊपर तो इतनी जिम्मेदारियां होती हैं कि बस वह सोच कर ही रह जाती हैं. यह स्तम्भ मैं उन्हीं महिलाओं को समर्पित करती हूं, जो घर में रहती हैं,ऑफिस जाती हैं, बच्चों को संभालती हैं, रिश्तों को सहेजती हैं, पति का ख्याल रखती हैं. कुल मिला कर एक "सुपर वोमन". सुनने में भला लगता है पर इन सारी जिम्मेदारियों को पूरा करने में उनकी अपनी इच्छाए कहीं पीछे छूट जाती हैं. मेरा ये स्तम्भ उन सभी को पसंद आएगा जो या तो घर पर बैठ कर देशाटन का आनंद उठाना चाहती हैं या फिर थोड़ी हिम्मत जुटा कर अकेले भारत दर्शन करना चाहती हैं. मैं खुद एक महिला हूं और चीजों को देखने-परखने का नजरिया भी महिलाओं वाला ही है. मैंने जब अकेले यात्रा करने का फैसला किया था तो आपकी तरह मेरे मन में भी बहुत सारी शंकाएं थीं, कहां जाउंगी, कैसे जाउंगी, लोग कैसे होंगे? वगैरह-वगैरह. पर आप विश्वास कीजिये, यात्राओं में मुझे हमेशा अच्छे लोग मिले हैं, जिन्होंने खुले दिल से मेरा स्वागत किया. लोगों का मैत्रीपूर्ण व्यवहार दिल को छू लेता है. पिछले दिनों हुई कुछ अप्रिय घटनाओं को छोड़ दें तो भारत में महिला पर्यटक औसतन सुरक्षित हैं. फिर भी थोड़ी सावधानी और सतर्कता जरूरी है.
हर वर्ष पूरी दुनिया में 27 सितंबर को विश्व पर्यटन दिवस मनाया जाता है. इस उपलक्ष्य में मैं आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त आपको  इस स्तम्भ के माध्यम से आपको हर बार एक नए शहर लेकर जाऊंगी. उम्मीद करती हूं, मेरा प्रयास आपको पसंद आएगा. हम इस यात्रा वृतांत का शुभारंभ करेंगे, हिंदुस्तान के दिलयानि मध्य प्रदेश से.


मध्य प्रदेश की राजधानीभोपाल. झीलों और तालाबों का शहर.. नवाबों और मुस्लिम तहजीब का शहर. पहली बार भोपाल जा रही थी.. अपने मित्रों से इस शहर के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था. हमारी यात्रा शुरू होती है नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से. सुबह 6 बजे भोपाल-दिल्ली शताब्दी से हम भोपाल की और रवाना होते हैं. विश्व प्रसिद्द शहर आगरा से होते हुए हम चंबल की खूबसूरत घाटियों और डाकुओं के लिए मशहूर यहां के बीहड़ों को पार कर दोपहर बाद भोपाल पहुंच जाते हैं. स्टेशन का नजारा देख हमें भोपाल की जिंदादिली का एहसास हो जाता है

भोपाल अपनी नवाबी तहज़ीब और मेहमान नवाजी के लिए जाना जाता है. यह शहर कभी पर्दा, ज़र्दा और गर्दा के लिए मशहूर था. पर्दा यानि पर्दा नशीन महिलाएं, ज़र्दा यानि तंबाकू, जिसे यहां के लोग पान में डाल कर खाना पसंद करते हैं. और गर्दा यानि धूल, जो कभी भोपाल की सड़कों पर उड़ा करती रही होगी, पर आज भोपाल की सड़कें साफ सुथरी और छायादार वृक्षों से सजी हुई दुल्हन सरीखी लगती हैं. इतिहास की किताबों के पन्ने बताते हैं कि वर्तमान भोपाल की स्थापना मुगल सल्तनत के एक अफगान सरदार दोस्त मुहम्मद खान ने की थी. मुगल साम्राज्य के विघटन का फायदा उठाते हुए खान ने बेरासिया तहसील हड़प ली थी. कुछ समय बाद गोंड रानी कमलापती की मदद करने के लिए खान को भोपाल गांव भेंट किया गया. रानी की मौत के बाद खान ने छोटे से गोंड राज्य पर कब्ज़ा जमा लिया. दोस्त मुहम्मद खान ने भोपाल गांव की किलाबंदी कर इसे एक शहर में तब्दील कर दिया. शहर की हदबंदी होते ही दोस्त मुहम्मद खान ने नवाब की पदवी अपना ली और इस तरह से भोपाल राज्य की स्थापना हुई. मुगल दरबार के सिद्दीकी बंधुओं से दोस्ती के नाते खान ने हैदराबाद के निज़ाम मीर क़मरउद्दीन से दुश्मनी मोल ले ली. सिद्दीकी बंधुओं से निपटने के बाद 1723 में निज़ाम ने भोपाल पर हमला बोल दिया और दोस्त मुहम्मद खान को निज़ाम का आधिपत्य स्वीकार करना पड़ा. 1947 में जब भारत को आज़ादी मिली तब भोपाल राज्य की वारिस आबिदा सुल्तान पाकिस्तान चली गईं. उनकी छोटी बहन बेगम साजिदा सुल्तान को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया. 1949 में भोपाल राज्य का भारत में विलय हो गया. भोपाल पर लंबे समय तक मुगलों और नवाबों का आधिपत्य रहा है, इसलिए यहां इस्लामिक संस्कृति की छाप देखने को मिलती है. यह शहर कला, साहित्य और संस्कृति का केंद्र है. इसीलिए इसे भारत की सांस्कतिक राजधानी भी कहा जाता है.

भोपाल में एक कहावत हैतालों में ताल भोपाल का ताल, बाकी सब तलैया. अर्थात यदि सही अर्थों में तालाब कोई है तो वह है भोपाल का तालाब. भोपाल की इस विशालकाय जल संरचना को ब्रिटिश इतिहासकारों ने अपर लेक(Upper Lake) का नाम दिया हैं. लेकिन स्थानीय लोग भोपाली अंदाज में इसे बड़ा तालाबकहते हैं. आप को सुन कर हौरानी होगी की, यह एशिया की सबसे बड़ी कृत्रिम झील है. यह शहर के पूर्व से पश्चिम की और करीब 10 किमी तक फैला है. मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के पश्चिमी हिस्से में स्थित यह तालाब भोपाल के निवासियों के पीने के पानी का मुख्य स्रोत भी है. भोपाल ताल को भोज ताल भी कहते हैं, क्योंकि इसका निर्माण परमार नरेश राजा भोज ने कराया था. इस तालाब में श्यामला पहाड़ी के नीचे नवाब हमीदुल्ला खान द्वारा एक याट क्लब का निर्माण कराया गया था, जिसे आज बोट क्लब के नाम से जाना जाता है .
यह बारिशों के बाद का समय है,.. आसमान साफ है और दिन में कड़क धूप निकलती है. भोपाल की शाम बहुत हसींन होती है. दिन ढ़लते ढ़लते मौसम सुहावना हो जाता है. भोपाल नगर महापालिका ने भोज ताल का रखरखाव अच्छे से किया है. इस जगह को आप शहर का दिल कह सकते हैं. शाम होते ही यहां भीड़ बढ़ने लगती है. लोग यहां लोग तफरीह के लिए आते हैं.

नवाबी शहर होने के नाते भोपाल में मुसलमानों की काफी आबादी है. औरतें अक्सर बुर्के में ही नज़र आती हैं. यहां बोट क्लब पर मैंने दो सुंदर लड़कियों को देखा. दोनों बुर्का पहने हुए थीं. उनकी काजल से कजरारी आंखें बरबस ही अपनी ओर आकर्षित कर रही थीं. हम ने ताल में नौका विहार का मन बनाया. चप्पू से चलने वाली नाव में हम सवार हो गए. हमारा मांझी एक नौजवान लड़का था और खास भोपाली अंदाज़ में बात कर रहा था. उसने बताया कि ये ताल 80 फिट गहरा है. ताल का पानी साफ़ और कई प्रकार की मछलियों का घर है. नौका विहार करते हुए हमें पतली-सी नाव पर एक मछुवारा दिखा जो जो सधे हाथों से जाल से मछलियां पकड़ रहा था. ताल के बीचों बीच एक टापू है जिस पर शाह अली पीर बाबा की दरगाह है. ताल के बीच यह बड़ा सुंदर लगता है और रात में हरी और नीली रोशनियों से नहा कर कर  तो यह बिलकुल गुलदस्ते जैसा नज़र आता है. मजार के एक मुजाविर (दरगाह का रखरखाव करने वाला) ने बताया कि मुम्बई की प्रसिद्ध हाजी अली की दरगाह इनके भाई की दरगाह है. यहां लोग मन्नत मांगने आते हैं. बुर्के वाली उन दोनों लड़कियों को मैंने यहां नाव से उतरते देखा. उनकी  सुंदरता और नैनों की चंचलता मुझे आकर्षित कर रही थी. मैंने हाथ बढ़ा उसे नाव से उतरने में सहारा दिया. मेरा दोस्ताना रवैया देख उन लोगों ने मुझसे बात करनी चाही. मैं भी तो यही चाहती थी. हम वहीं मजार की सीडियों पर बैठ कर बात करने लगे. उनमे से एक लड़की विवाहिता थी और दूसरी मदरसे में धार्मिक किताबों का अध्यन करती थी. बातों-बातों में पता चला कि बुर्का उन्होंने अपनी मर्ज़ी से पहना है. उनके साथ कोई जबरदस्ती नहीं की गई. इसे वह अपनी तहज़ीब का हिस्सा मानती हैं.

हम बातचीत खत्म कर सूर्यास्त देखने का इंतजार करने लगे. मैंने नाव से ही सूर्य की पानी में आभा बिखेरते हुए कुछ तस्वीरें खीचीं. ढलता सूरज भोपाल ताल में सिंदूरी रंग घोल रहा था. धूप की नर्म रोशनी श्यामला हिल्स को चम्पई बना रही थी. भोपाल में पर्दा-नशीने स्कूटी चलाते हुए आराम से देखी जा सकती हैं. भोपाल ताल पर दिन भर रौनक लगी रहती है. यहां कालेज के लड़के-लड़कियां जगह-जगह बैठे दिख जाएंगे. बाहर से परंपरागत दिखने वाला ये शहर प्रेम के प्रदर्शन में कतई आधुनिक है. यहां प्रेमी जोड़े बांहों में बाहें डाल, दुनिया से बेपरवाह  सड़क किनारे बैठे पाए जाते हैं. प्रेम का ऐसा उन्मुक्त प्रदर्शन भोपाल में देखना मेरे लिए आश्चर्य की बात है. ताल पर आधुनिक साज सज्जा से संपन्न एक बोट क्लब भी है, जो मध्य प्रदेश टूरिज्म की देख रेख में चलता है. तो यहां पाल वाली नाव अन्य वाटर स्पोर्ट्स के गुर सिखाने की भी व्यवस्था है. इस ताल में एक क्रूज़ भी है जो लंबी यात्रा के जरिए  पूरे ताल का दर्शन करवाता है. बोट क्लब के सामने खाने पीने के छोटे- छोटे रेस्टोरेंट हैं. यहां युवाओं का जमावड़ा लगा रहता है. शाम होते-होते इन रेस्टोरेंटो में लोकल सिंगर पहले से रिकॉर्ड म्यूजिक पर रोमांटिक गाने गाते हैं. ताल की पूरी सड़क संगीतमय हो जाती है. मैंने पूरब से पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण तक के कई शहर देखे हैं पर सड़क किनारे छोटे रेस्टोरेंटो में संगीत की स्वर लहरी केवल भोपाल में ही दिखी है. इससे ज़ाहिर होता है कि भोपाल संगीत प्रेमियों का भी शहर है.

ताल की सड़क के उस पार छोटी सी पहाड़ी पर, जो श्यामला हिल्स का ही हिस्सा है, सुंदर सा एक रेस्टोरेंट है. जिसका नाम है- "विंड एंड वेब्स". यह एक सरकारी रेस्टोरेंट है इसलिए परंपरा और आधुनिकता के बीच झूल रहा है. अगर आप परिवार के साथ आएंगे तो आपको शराब परोसी जाएगी और अकले हैं तो आप के लिए यहां यह वर्जित है. यह शहर का प्रतिष्ठित रेस्टोरेंट है और लोग परिवार के साथ शाम बिताने आते हैं. यहां से ताल का नज़ारा बहुत सुंदर दिखता है. हमने खुले में पड़ी रॉट आयरन की कुर्सियों पर बैठने का फैसला किया. यहां से ताल के बीचोंबीच टापू पर बसा जंगल दूर से किसी गुलदस्ते जैसा दिख रहा था.  हवा में थोड़ी-थोड़ी ठंड घुलने लगी है. ये सर्दी की आहट है. यह वही रेस्टोरेंट है जहां प्रकाश झा की फिल्म 'आरक्षण" के एक गाने की शूटिंग हुई थी. हमने खाना खाया. ठीक था पर जितनी सुंदर जगह है उतना बढ़िया नहीं था. यह जगह किसी ख़ास  इंसान के साथ वक़्त गुज़ारने और कॉफ़ी पीने के लिए अच्छी है.


रात घिरने लगी थी. हम वापसी के लिए चल दिए. पहाड़ी से उतर आटो रिक्शा का इंतज़ार कर रहे थे. मेरे सामने तीन जवान लड़कियां दो चार बच्चों से घिरी खड़ी थीं. तीनो बेहद खूबसूरत थीं. उम्र रही होगी यही कोई 18 से 20 के दरम्यान. मेरी नज़रे उनसे टकराई. वो तीनों बड़ी ही लालसा भरी नज़रों से मुझे देख रहीं थीं. मेरे एक हाथ में पर्स और दुसरे में कैमरा था. मैंने कैपरी और लेपोर्ड प्रिंट का टॉप पहना हुआ था. जल्दी जल्दी में मेकअप सुबह वाला ही टच-अप करके गई थी. फिर भी उनकी नज़र से देखने पर मैं शायद उन्हें बड़ी आधुनिक दिख रही थी. उनकी आखों से झांकती लालसा को देख, मैंने मित्रवत मुस्कुरा कर सिर हिलाया. बुर्के के नीचे दबी उनकी हसरतें, उनके मासूम और सुंदर चेहरे पर साफ दिख रही थीं. मैं उनसे कहना चाहती थी, " दोस्त, जिंदगी एक बार ही मिलती है, हम एक बार ही जीते हैं. इसलिए अपने लिए जीना सीखो. खुद को इस लायक़ बनाओ की जैसी जिंदगी का ख़्वाब  तुमने अपने लिए देखा हो, वैसी जिंदगी अपने लिए बना लो. जिंदगी जियो पर अपनी शर्तों पर, क्योकि जब मेरे जैसी लड़की ऐसा कर सकती है तो कोई भी कर सकती है. पर ये जंग तुम्हें खुद लड़नी होगी और इसे जीतने के लिए तुम्हारा साथ देगी- तुम्हारी पढ़ाई."
मैं अपनी यात्राओं के दौरान अक्सर महिलाओं की आंखों में ऐसी लालसा और हसरते देखती हूं और फिर खुद से सवाल-जवाब करने लगती हूं. जब देश आज़ाद है तो हम क्यों नहीं? जब हमारा संविधान हमें हमारा प्रधान मंत्री चुनने का अधिकार देता है तो अपना जीवन क्यों नहीं?   आखिर कब तक दूसरे लोग हमारे जीवन के फ़ैसले करते रहेंगे? अपने सपनों को, अपनी इच्छाओं को दिल में दफ़्न मत करो. उन्हें जियो, साकार करो... लेकिन इसके लिए हमें यह संकल्प लेना होगा कि हमारी जिंदगी कैसी होगी, इसका फ़ैसला मेरे अलावा कोई और नहीं करेगाहम जैसा चाहें, वैसी दुनिया बना सकते हैं अपने लिए. यकीन मानिए. यह मुमकिन है. बस इसका रास्ता स्कूल से हो कर जाता है. हमें पढ़ना होगा.. अपने सपनों के लिए.. अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए..

माफ कीजिएगा, मैं थोड़ा भावनाओं में बह गई थी. मैं भी एक आम लड़की थी. उत्तर प्रदेश के एक छोटे शहर में पली बढ़ी. जहां बेटी का मतलब शादी और पति की सेवा व बच्चे पालना है. नौकरी कर अपने पैरों पर खड़े होना, फिर घूमना, फोटोग्राफी करना बस खयालों में थालेकिन अब्बू ने मेरे मन की बात पढ़ ली थी. परिवार और समाज के तमाम विरोधों के बाद उन्होंने मुझे उच्च शिक्षा के लिए न केवल प्रेरित किया, बल्कि जब तक वे जीवित रहे उसे अंजाम तक पहुंचाने की भरपूर कोशिश की. अल्लाह सबको ऐसे अब्बू दें.

भावनाओं के समुद्र से निकल कर अब हम फिर भोपाल यात्रा पर वापस लौटते हैं. भोपाल पठार पर बसा शहर है इसलिए सड़कें ढलान और चढ़ाई वाली हैं. हम ताल से होटल वापसी के लिए एक आटों में बैठते हैं. भोपाल में आटोरिक्शा वाले ज्यादातर मुसलमान हैं. आटो में बैठते ही पिता के उम्र के आटोरिक्शा चालक ने हमारे साथी से बड़े प्यार से कहा,  "मियां जरा पान खा लें... फिर चलते हैं.” भोपाली अंदाज में बात करने वाला यह इंसान मुझे सुरमा भोपाली की याद दिला रहा था. भोपाल एक शांत शहर है. इसे "बाबुओं" का शहर भी कहा जाता है. राज्य की राजधानी और शिक्षा व संस्कृति का केंद्र होने के कारण यहां ढेर सारे सरकारी महकमें हैं. लिहाजा शहर में सरकारी नौकरी करने वाले बाबुओं की बहुतायत है. यहां की सड़के चौड़ी और साफ सुथरी हैं. जगह-जगह पर उंचाई और ढलाने हैं. ऐसी चढ़ाईयां बनारस और आगरा में भी हैं. हाथ से रिक्शा खींचने वालों को वहाँ काफी मशक्कत करनी पड़ती है, इसीलिए भोपाल में हाथ के रिक्शे नहीं चलते. इसलिए छोटी दूरी तो पैदल ही तय करनी पड़ती है. मुझे किसी ज्ञानी व्यक्ति ने बताया कि जब ऐसी चढ़ाई पर चढ़ना हो तो लंबे-लंबे डग नहीं भरने चाहिए. छोटे छोटे कदम बढ़ाने से पैर नहीं थकते. अगर रेत में चलना हो, जैसे कुंभ का मेला या फिर संगम तट, तो वहां भी यही तकनीक अपनानी चाहिए.     

सड़क के दोनों ओर झुके हुए छायादार वृक्ष मानों आने वालो का सिर झुका कर स्वागत करते हैं. भोपाल शहर रूमानी जगह है. जहां आप को हर कोने में प्रकृति की इतनी सुंदर छटा के दर्शन होंगे कि आप को अपना साथी याद हो आएगा... तारकोल की लंबी और चिकनी सड़कें कहीं उंचाई की और जातीं, जैसे सीधे आसमान से जा मिली हों. डिम लाइटों से सड़क पर लंबी-लंबी आकृतियां उभरती हैं. दिन थोड़े गर्म हैं अभी, पर शाम होते होते मौसम  खुशगवार हो जाता है. उतना अच्छा तो नहीं जितना राजस्थान और सिंध (पाकिस्तान) के शहरों में होता है. पर दिन के मुकाबले सुंदर हो उठता है. मैं आटो मैं बैठी ठंड़ी हवा का आनन्द ले रही थी. हवा के झोंके मेरे बालों को उड़ा रहे थे... हवा में थोड़ी-थोड़ी नमी है, क्योंकि आसपास कोलार डैम है.. इस शहर में घूमते हुए जगह-जगह खाने पीने के ढेरों ठिकाने दिख जाएंगे. यहां जूस व आसक्रीम पार्लर बहुत हैं.
भोपाल देश की सांस्कृतिक राजधानी भी है. यहां हमेशा कुछ न कुछ होता रहता है... गोष्ठी, नाटक, सभा, प्रदर्शनी आदि. यहां कई संस्कृतियों की छाप मिलती है. इसीलिए मध्य प्रदेश को हिंदुस्तान का दिल कहा जाता है. महाराष्ट्र से सटे होने के कारण गणपति की स्थापना और विसर्जन भी दिखता है. यहां लोग गणपति के छोटे-छोटे पंडाल भी बनाते हैं. उतने बड़े नहीं जितना की महाराष्ट्र में होते हैं. भोपाल ताल के सामने एक सुंदर पहाड़ी है, उसका नाम श्यामला हिल्स है. यहां पर कई छोटे छोटे बंगले दिखाई देते हैं. अमिताभ बच्चन की ससुराल भी यहीं है. इसी पहाड़ी के एक छोर पर भारत भवन स्थित है. भारत भवन कला प्रेमियों के लिए मक्का के समान है. यहां आर्ट गैलरी, ललित कला संग्रहालय, इनडोर-आउटडोर आडीटोरियम, दर्शक दीर्घा व पुस्तकालय आदि हैं. इस भवन के सूत्रधार चार्ल्स कोरा के अनुसार, "यह कला केंद्र एक बहुत ही सुंदर स्थान पर केंद्रित है. पानी पर झुका हुआ एक ऐसा पठार, जहां से तालाब और ऐतिहासिक शहर बखूबी दिखाई देता है.” श्यामला हिल्स पर बसा यह भवन 1982 में वास्तुकार चार्ल्स कोरा ने डिजाइन किया था. भारत भवन की स्थापत्य कला और प्राकृतिक दृश्य बड़े मनोरम है.


घूमना मेरी जिंदगी का हिस्सा है और इसके लिए मेरा एक "सरवाइवल मंत्र" है जो शायद आप के भी काम आए. वह यह कि, " जब तक जेब में पैसे हों और होश ठिकाने है, तब तक स्थिति काबू में है.” घूमक्कडी को भय से दूर होना चाहिए. भय तो मुझे कभी छूकर भी नहीं गया. न भूत.. न इंसान... मुझे देशाटन करते हुए ऐसा महसूस होता है कि अपना देश ऐसा है जहां भले लोगों की संख्या ज्यादा है. लोग मदद करने वाले होते हैं. फिर भी सतर्कता जरूरी है. एक यात्री होने के नाते जरूरी है कि आप अपने आस-पास घटने वाली चीजों पर नजर रखें और थोड़ा भा खटका होने पर उस स्थान को फौरन छोड़ दें. कभी-कभी ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है कि आप थोड़ा और रुकना चाहते हैं. बस जरा और... एक शॉट और... हम यह लोभ संवरण नहीं कर पाते... पर ऐसा करना आप को मुसीबत में डाल सकता है. अत: सावधानी जरूरी है. “जान है तो जहान है”. इस कहावत को गांठ बांध लीजिए. किसी नए स्थान पर जा रहे हों तो वहां की थोड़ी जानकारी पहले से इकठ्ठा कर लें. यदि रास्ता भटक गए हों तो पहले किसी पुलिस वाले से या फिर किसी स्थानीय दुकानदार से पता मालुम करें. वैसे मुझे पूरा भारत अपना घर सा जान पड़ता है. आप नए शहर में जाते हैं, जहां पहले कहीं नहीं गए हैं. वहां के सारे दृश्य आप पहली बार देख रहे हैं. पर उन दृश्यों में भी कुछ ऐसा छुपा होता है जो आप की पुरानी पहचान वाला है. सहसा मेरी नजर भारत पेट्रोलियम पर पड़ती है.. अरे वाह मेरा पेट्रोल पंप.. मैं अपने शहर में इसी से तो कार में पेट्राल डलवाती हूं. थोड़ा आगे चलें... तो स्टेट बैंक आफ इंडिया का नीला बोर्ड... पहचाना सा दिखेगा.. मेरा बैंक.. क्यूं हुई न पुरानी पहचान.???
भोपाल घूमना हो तो कम से कम दो दिन रखिए अपने पास... एक दिन भोपाल शहर के लिए और दूसरा दिन शहर से सटे ऐतिहासिक स्थलों के लिए.. दूसरे दिन हमने भोजपुर जाने का मन बनाया. यह प्राचीन शहर दक्षिण पूर्व भोपाल से 28 किमी की दूरी पर स्थित है. इस शहर की स्थापना परमार वंश के राजा भोज प्रथम (1010 – 1055 ) ने की थी. यह शहर भगवान शिव को समर्पित भोजेश्वर मंदिर के लिए प्रसिद्द है. इस प्रचानी नगर को उत्तर भारत का सोमनाथ भी कहा जाता है. यह है स्थान साइक्लोपियन बांध के लिए भी जाना जाता है. यह मंदिर पहाड़ी पर एक ऊंचे चबूतरे पर बना है. इसके गर्भ गृह में लगभग 2.3 मीटर लंबा शिव लिंग स्थापित है. इस शिव लिंग को भारत के सबसे विशाल शिव लिंगों में एक होने का गौरव प्राप्त है. भोजपुर शिव मंदिर 10वीं शताब्दी का प्राचीन मंदिर है. इसे राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया गया है. इसलिए इसके रख-रखाव की जिम्मेदारी पुरातत्व विभाग उठाता है.


भोजपुर मंदिर के पार्श्व में अविरल बहती नदी है बेतवा. यह यमुना की सहायक नदियों में से एक है. बेतवा भोजपुर मंदिर की पहाड़ी से काफी नीचे बहती है. लगता है जैसे मंदिर के चरणों में बहती बेतवा दर्शन करने वालों को शुद्ध होने का मौन निमंत्रण देती है. यह भोपाल से निकल कर उत्तर पूर्वी दिशा में शांत बहती है. इसके किनारे सांची व विदिशा जैसे प्राचीन सांस्कृतिक नगर स्थित हैं. बेतवा शांत विध्यांचल पर्वत मालाओं के बीच बहती जाती है. यह गोलाकार पर्वत श्रृखंला भारत को बीचों-बीच से दो भांगों में बांटती है. उत्तरी भारत और दक्षिणी भारत.. इस श्रृखंला का उच्चतम बिंदू अमरकंटक है जिसकी उंचाई समुद्रतल से 3438 फुट है. एक पौराणिक कथा के अनुसार - एक बार विध्याचल पर्वत अपने आप ही बढ़ने लगा और उसके बढ़ने के कारण इस क्षेत्र की सुंदरता भी बढ़ी. पर जब ये लगातार बढ़ते ही जा रहे थे तो इन्हें घमंड हो गया कि हम इतने विशाल हैं कि सूर्य को हमारा चक्कर लगाना चाहिए. तब विध्यांचल को रोकने के लिए अगस्थ्य मुनि ने एक रास्ता निकाला. उन्होंने दक्षिण की यात्रा का कार्यक्रम बनाया. रास्ते में विध्य पर्वत था. मुनि ने विध्य पर्वत से कहा कि दक्षिण की यात्रा के लिए उसे उनका सहयोग करना चाहिए. विध्य पर्वत ने श्रद्धापूर्वक मुनि और साथियों के लिए अपना शीश झुकाया और मुनि को दक्षिण में प्रवेश दिलाया. साथ ही यह वचन भी दिया कि जब तक मुनि वापस उत्तर में नहीं आएंगे, वह अपनी उंचाई और नहीं बढ़ाएंगे. पर अगस्थ्य मुनि हमेशा के लिए नासिक के पास गोदावरी नदी के तट पर बस गए. बाद में वह दूर दक्षिण में चले गए. पर विध्यांचल पर्वत आज भी अपना वचन निभा रहा है. विध्यांचल पर्वत शायद देखने में इसी लिए उंचे नीचे से हैं.

मैंने मंदिर की पहाड़ी से से झांक कर बेतवा नदी को देखा. बेतवा शांत भाव से बह रही थी. यह बरसात के बाद का मौसम है. प्रकृति ने स्वयं ही सारा कुछ धो पोछ कर साफ कर दिया है. पत्थर काले पर लालिमा लिए हुए दिखते हैं. हमें नदी तक जाने के लिए दूसरा रास्ता लेना होगा, क्योंकि एक दुर्घटना के बाद पहले वाले मंदिर से जाने वाले रास्ते पर पाबंदी लगा दी गई है. मैंने जल्दी-जल्दी मंदिर का चक्कर लगाया और कुछ तस्वीरें ली. तभी एक लोकधुन कानों में गूंजती है. पलट के देखती  हूं तो पत्थर पर बैठा एक लोक गायक एकतारा लिए शिव-पार्वती के गौने के गीत गा रहा है.
एक स्त्री पिटारी में कोबारा सांप लिए मंदिर के द्वार पर बैठी थी. मैने सांप का फोटो खीचा. सांप बड़े ही शान से पिटारी में फन फैलाए फोटो खिचवा रहा था. मुझे ध्यान ही नहीं रहा की फन फैलाए सांप से मै केवल एक फुट की दूरी पर हूं. मेरे साथी नें सपेरन से पूछा, "यह निकल कर भागता तो नहीं?” उसने बड़े ही विश्वास से उत्तर दिया, "नहीं बाबू जी हमको महादेव का आशीष है. यह पिटारी में से  कहीं नहीं भागेगा. हां, पिटारी से बाहर निकाल दिया जो जरूर भाग जाएगा" हमने नाग देवता को नमन किया और बेतवा की ओर चल पड़े. ढाल पर बनी सीढियां उतर कर हम बेतवा के तट पर आ गए, जहां हमें ढेर सारी बत्तखों ने घेर लिया. वह भूखी थीं और हमसे कुछ खिलाने के लिए मनुहार कर रही थीं. मैने पास के दुकान वाले को उनके लिए बिस्कुट लाने के लिए कहा. इसके बाद मैं बत्तखों की तरफ मुखातिब हुई और कहा, "ठहरो, भैया अभी बिस्कुट ला रहे हैं.” वह ठहर गईं, मानों वह मेरी बातें समझ रही हो...


नदी के कलरव के बीच एक शांति थी. खुले आसमान के बीच, अजीब सी शांति.. ऐसा लग रहा था मानों लाउडस्पीकर के शोर के बीच से किसी साउंडप्रूफ कमरे में आकर बैठ गए हों. वहां ज्यादा लोग नहीं थे. सामने पत्थर  पर बैठा एक आदमी नदी में काटा डाले तन्मय होकर मछली के फंसने का इंतजार कर रहा था. हम नांव पर बैठ कर नदी के उस पार गए... नदी के तेज बहाव ने खुरदरे पत्थरों को भी चिकना कर दिया था. हम वहीं पत्थरों पर बैठ गए....पानी पत्थरों से टकराता हुआ बह रहा था.. अविरल... शांत... निश्छल ... यह दोपहर का समय था सूरज सिर पर था. हम जहां बैठे थे, वहां पेड़ो की छाया पड़ रही थी. मैने अपने जूते उतारे, पैंट के पांचे उपर चढाए.. और पानी में पैर डाल कर बैठ गई.. निगाहें आसमान पर टिका दी... आमीन, यह जगह कितनी सुंदर है... पानी की कल-कल किसी सुरमई गीत सरीखी सुनाई दे रही थी.. पानी का स्पर्श तन से मन तक को भिगो रहा था.. अगर आप मन के कानों से इसे सुनोगो तो ये पानी, ये हवाए... ये प्रकृति का स्पर्श सब गीत गाते मिलेगे.. हर चीज में लय है.. सुर है.. ताल है.. रिद्म है. जरूरत है बस इसे महसूस करने की... सुनने की. जहां हम बैठे थे वह स्थान चौड़ा नही था.. पीछे छोटी सी रोक लगा कर अस्थाई रूप से पानी को निकाला गया था. इसलिए इस स्थान पर बेतवा किसी नव-यौवना सी सकुचाती सी बहती है.. मैने पानी की तस्वीरें ली.. पानी का वेग काफी सुंदर था.. और यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं की सुंदरता इतनी कि कैमरा इसे कैद न कर पाए..
दुधिया पानी छोटे-छोटे पत्थरों से घुमड़ कर बह रहा था... शायद इसे ही अंग्रेजी में कहते हैं मिल्की इफेक्ट...
सहसा मेरे शरीर में एक खुशनुमा सिहरन सी हुई,
एक नया अनुभव हुआ,
अरे यह क्या ?,
मेरे पैरों से कोई मछली सरसराती हुई निकल गई..
स्पर्श... बिलकुल नया, अनजाना सा,
विद्युत की तरह, तन को झनझना देने वाला
प्रीतम के पहले स्पर्श सा,
मादक, मोहक, स्मृति में सदा जीवित रहने वाला.. 


मुझे हंसी आ गई. ऊपर नीला आसमान, क्वार का साफ आसमान, यहां वहां तैरते बादलों के आवारा टुकडे अठखेंलिया करते हुए... हम पूरी दोपहर वहीं बैठे रहे.. लगता था ये वक्त यहीं ठहर जाए... साथियों ने चलने के लिए कहा तो बेमन से उठना पड़ा. ऐसी रमणीक जगह से  भला कौन जाना चाहेगा. "….लेकिन आए हैं तो जाना ही पड़ेगा...” जीवन से संबंधित यह दार्शनिक वाक्य सहसा ओठों पर आ गया.

भूख भी लग आई थी. हम वापस भोपाल की तरफ रवाना हो गए. दोपहर के भोजन के लिए हमने "बापू की कुटिया" को चुना.. यह एक शुद्ध शाकाहारी भोजनालय है, जो काफी पुराना है. सोमवार को भोपाल का न्यू मार्केट बंद रहता है. भोपाल का न्यू मार्केट वही हैसियत रखता है जो दिल्ली में कनाट प्लेस. खाने से निवृत्त हो हम पांच बजे एक बार फिर भोपाल ताल पहुंचे.. सनसेट होने में अभी थोड़ी देर थी.. हमने बोटिंग करने का फैसला किया. नांव में बैठ कर एक बार फिर हम ताल के बीचों बीच टापू तक गए. मैने सूर्यास्त की कुछ तस्वीरें खीचीं. अब हमारी कॉफी पीने की इच्छा हो रही थी. इसलिए वापस हम ताल की पहाडी पर बने विंड्स एंड वेब्स रेस्टोरेंट में पहुंच गए. हमें मैनेजर ने पहचान लिया. उसने मुस्करा कर हमारा अभिवादन किया. मैं वहां बैठ कर काफी अच्छा महसूस कर रही थी. तालाब की सुंदरता यहां से बखूबी दिखाई दे रही थी. ठंडी हवाएं चल रही थी और आसमान पल-पल में रंग बदल रहा था. भाग दौड़ से भरा दिन, शाम होते-होते थक कर रात की बाहों में समा रहा था. दो वक्त ऐसे मिल रहे थे, जैसे मिल रहे हो   बिछड़े प्रेमी. लग रहा था मानों दिन यहीं ठहर जाए... पर अभी भोज ताल के कुछ नाइट्स साट्स लेना बाकी है. मैं आज ट्राइपॉड लेकर पूरी तैयारी के साथ नाइट साट्स लेने आई हूं. रात में किसी शहर को कैमरे  में कैद करना मेरे लिए रोमांचकारी होता है. मेरी नजर घड़ी पर थी.. मैं अंधेरा होने का इंतजार कर रही थी. अंधेरा घिर गया था... और शहर छोटी-छोटी हजारों रोशनियां से जगमगाने लगा... भोज ताल में रोशनियों के बिंब अटखेलियां कर रहे थे. दूर ताल के बीच बने टापू पर हरी जामुनी लाइटें फिर से ऱोशन हो गई थी.. मैने अलग-अलग जगह ट्राइपॉट लगा कर तस्वीरे लीं.. मन था की भर ही नहीं रहा था.. और शाट्स लेने के लिए बच्चे की तरह जिद कर रहा था. मेरा अंतिम पड़ाव था भोज ताल का वह हिस्सा जो रंजीत लेख व्यू होटल के सामने है. बहुत प्यारी लोकेशन है. ट्राइपॉट पैंक किया और होटल की तरफ प्रस्थान किया. होटल के रास्ते में कोलार डैम आता है.. ठंडी हवा इसका एहसास कराती है... भोपाल में कई डैम हैं.. कोलार डैम, केरबा डैम, भदभदा डैम.. वगैरह.
अभी तो भोपाल में बहुत कुछ देखना बाकी है. मैं भोपाल के ताल और बेतवा में इतना खो गई कि आप को और कुछ घुमा ही नहीं पाई. घूमने में आप स्वतंत्र होते हैं.. अपनी मर्जी के मालिक होते हैं. लेकिन किसी पत्रिका के लिए लिखने में आप को यह आजादी कहां.. यहां तो शब्दों की सीमा है. लिहाजा मैं अब भावनाओं के आगोश में जाए बिना जल्दी जल्दी आप को भोपाल के उन जगहों के बारे में बता दूं, जिन्हें जानना आप के लिए मजेदार रहेगा.
भोपाल जाएं तो इंदिरा गांधी मानव संग्रहालय देखना कतई न भूंलें.    ताल के ऊपर की पहाड़ी पर 200 एकड़ में फैला यह एक अनोखा संग्रहालय है. यहां 32 पारंपरिक एवं प्रागैतिहासिक चित्र शैलाश्रय हैं. इसमें भारतीय परिवेश में मानव जीवन के कालक्रम को दिखाया गया है. इस संग्राहालय में भारत की विभिन्न जनजातीय संस्कृतियों की झलक देखी जा सकती है. यह संग्रहालय जिस स्थान पर बना है, उसे प्रागैतिहासिक काल से संबंधित माना जाता है. यहां आकर मुझे ऐसा लगा कि यहां आदिवासी रहते हैं. कुछ देर के लिए वे कहीं चले गए हैं और अभी आते होंगे... दक्षिण भोपाल से 48 किलोमीटर दूर स्थित भीम बैठका की गुफाएं प्रागैतिहासिक काल की चित्रकारियों के लिए प्रसिद्ध हैं. ये गुफाएं विध्यांचल पर्वतमालाओं से घिरी हैं. रायसेन जिले में स्थित यह एक पुरा-पाषाणिक आवासीय स्थल है. इन गुफाओं की दीवारों पर आदि मानवों द्वारा उकेरे गए चित्र हैं. इन चित्रों को पुरा-पाषाण से मध्य-पाषाण काल के बीच का माना जाता है. सन 1990 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इसे राष्ट्रीय महत्व का धरोहर घोषित किया. जिसे बाद में  सन 2003 में युनेस्कों ने भी विश्व धरोहर का दर्जा प्रदान किया. ऐसा कहा जाता है कि इस स्थान का संबंध महाभारत के चरित्र भीम से है. इसीलिए इसका नाम भीम बैठका पड़ा. अगर आप पक्षी प्रेमी हैं तो भोपाल में घूमते हुए आप कई नए व अनोखे पक्षिय़ों को देख सकते हैं. वन्य जीव प्रेमियों के लिए यहां वन विहार राष्ट्रीय पार्क है. यह श्यामला हिल्स के पीछे पड़ता है. 445 हेक्टेयर में फैले इस वन बिहार में जीव प्राकृतिक परिवेश में निवास करते हैं. वन्य जीवों को बिना पिजरे के देखना एक सुखद अनुभव है.  

जैसा की पहले मैने बताया कि भोपाल नवाबों का शहर रहा है. इसकी झलक देखने के लिए आप को पुराने शहर में जाना पड़ेगा. यहां के लोग दस्तकारी और मोती की कशीदाकारी का हुनर भी रखते हैं. पेपर मैशी  भी यहां की एक कला है, जिसमें कागज को गला कर मिट्टी के साथ खिलोनै और हैंडीक्राफ्ट का सामान बनाया जाता है. ये कलाएं नवाबों के समय से चली आ रही हैं. यहां घूमते हुए मैं ताजुल मस्जिद में पहुंती हूं. ताजुल मस्जिद स्लामिक वास्तु कला का बेजोड़ नमूना है  मुगलों द्वारा बनाई गई इस भव्य मस्जिद से सटा हुआ एक खूब सूरत तालाब भी है जिसका नाम मोतिया तालाब है. अगर आप पारंपरिक कपड़ों व अन्य चीजों के शौकीन हैं तो आप को पुराने भोपाल के बाजारों का चक्कर जरूर लगाना चाहिए. जैसे हमीदिया रोड़, घोड़ा नक्कास, हनुमान गंज, सुल्तानियां रोड़, सर्राफा चौक, इब्राहिम पुर आदि... सुल्तानिया रोड़ पर प्रसिद्ध चटोरी गली भी है जहां शाकाहारी व मांसाहारी व्यंजन देर रात तक मिलते हैं. लखेरापुरा मार्केट किसी जमाने में लाख से बनी चूडियों के लिए जाना जाता था.

मेरी यह छोटी परंतु सारगर्भित भोपाल यात्रा निसंदेह अविस्मरीण है. खासकर यहां की तहजीब, यहां के लोग और उनका मित्रवत व्यवहार, दिल को छू लेने वाला है. और हां, अविस्मर्णीय बेतवा नदी, जिसे मैं  नहीं भुला पा रही हूं. बेतवा की मनोरम सुंदरता, उसकी शांति, उसका कल-कल निनाद और पत्थरों पर पानी के उसके छीटों के शोर अभी भी मेरे कानों में गूंज रहे हैं


भोपाल दर्शन पूरे होने आए थे. हम होटल की तरफ अग्रसर थे रास्ते में बांढ गंगा चौराहे पर मुल्ला रामू जी भवन देखा.. भोपाल के प्रसिद् साहित्यकार थे जिन्होंने उर्दू की एक अलग शैली विकसित की थी जिसका नाम था गुलाबी उर्दू...


दोस्तों भोपाल यात्रा यहीं समाप्त होती है . फिर मिलेंगे किसी नए शहर की यात्रा पर.

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त 

डा० कायनात क़ाज़ी