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कुछ पंक्तियां इस ब्लॉग के बारे में :

प्रिय पाठक,
हिन्दी के प्रथम ट्रेवल फ़ोटोग्राफ़ी ब्लॉग पर आपका स्वागत है.….
ऐसा नहीं है कि हिन्दी में अच्छे ब्लॉग लिखने वालों की कमी है। हिन्दी में लोग एक से एक बेहतरीन ब्लॉग्स लिख रहे हैं। पर एक चीज़ की कमी अक्सर खलती है। जहां ब्लॉग पर अच्छा कन्टेन्ट है वहां एक अच्छी क्वालिटी की तस्वीर नहीं मिलती और जिन ब्लॉग्स पर अच्छी तस्वीरें होती हैं वहां कन्टेन्ट उतना अच्छा नहीं होता। मैं साहित्यकार के अलावा एक ट्रेवल राइटर और फोटोग्राफर हूँ। मैंने अपने इस ब्लॉग के ज़रिये इस दूरी को पाटने का प्रयास किया है। मेरा यह ब्लॉग हिन्दी का प्रथम ट्रेवल फ़ोटोग्राफ़ी ब्लॉग है। जहाँ आपको मिलेगी भारत के कुछ अनछुए पहलुओं, अनदेखे स्थानों की सविस्तार जानकारी और उन स्थानों से जुड़ी कुछ बेहतरीन तस्वीरें।
उम्मीद है, आप को मेरा यह प्रयास पसंद आएगा। आपकी प्रतिक्रियाओं की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।
आपके कमेन्ट मुझे इस ब्लॉग को और बेहतर बनाने की प्रेरणा देंगे।

मंगल मृदुल कामनाओं सहित
आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी

Sunday 27 November 2016

लोक नृत्य, कला और प्रकृति की सौगात-संगाई फेस्टिवल, इम्फाल मणिपुर


लोक नृत्य, कला और प्रकृति की सौगात-संगाई फेस्टिवल, इम्फाल मणिपुर


 

[caption id="attachment_8133" align="aligncenter" width="1200"]solo-female-traveller-kaynat-kazi-Sangai-festival-manipur Folk dance at Sangai festival-Manipur[/caption]

दिल्ली से मणिपुर तक का सफ़र लंबा है। यहाँ तक पहुँचने के दो ही साधन हैं, या तो बस या फिर फ्लाइट। पहाड़ों की दूर दूर तक फैली क़तारों को पर करके मणिपुर आता है। मुझे जब मणिपुर टूरिज़्म से संगाई महोत्सव न्योता आया तो जाना तो बनता ही था। हमारे देश के उत्तर पूर्वी राज्यों को सात बहने माना जाता है। नॉर्थ ईस्ट के यह 7 राज्य बहुत खूबसूरत हैं।


 सिक्किम, मणिपुर, मेघालय,नागालैंड, अरुणाचल परदेश,मिज़ोरम और त्रिपुरा सभी एक से बढ़ कर एक राज्य हैं। क़ुदरत ने भर भर हाथ इन प्रदेशों को प्राकृतिक सुंदरता से नवाज़ा है। इसी लिए शायद पंडित नेहरू इसे भारत का नगीना कहा करते थे। वैसे इसे प्यार से लोग ईस्ट का स्विट्जरलैंड भी कहते हैं। मणिपुर एक छोटा राज्य है लेकिन इसका सामरिक महत्व बहुत है। मणिपुर म्यामार के साथ 348 किलोमीटर की अंतरराष्ट्रीय सीमा साझा करता है। आप यहां से एक दिन मे भी म्यामार होकर आ सकते हैं। हमारे देश के पड़ोसी राष्ट्रों से संबंधों की द्रष्टि से भी इस राज्य का बड़ा महत्व है। यहाँ से होकर सड़क के रास्ते म्यामार और थायलैंड तक जाया जा सकता है।


sangai-festival


हाँ तो हम बात कर रहे थे संगाई फेस्टिवल की। संगाई फेस्टिवल इंफाल मे नवम्बर के महीने मे हर साल बड़े ही धूम धाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर पूरे शहर को दुल्हन की तरह सजाया जाता है। शाम होते ही पूरा शहर जगमगाती रोशनियों से सज जाता है। संगाई फेस्टिवल एक ज़रिया है इस छोटे से राज्य मे फैले 34 जनजातियों की अलग-अलग संस्कृतियों से रूबरू होने का। इस फेस्टिवल द्वारा पूरे के पूरे मानीपुर की आत्मा को एक जगह लाकर रख दिया जाता है। मणिपुर तीन चीज़ों के लिये जाना जाता है, यहाँ का नृत्य, लोक कला प्राकृतिक सुंदरता और सांस्कृतिक धरोहर।




[caption id="attachment_8135" align="aligncenter" width="1200"]solo-female-traveller-kaynat-kazi-Sangai-festival-manipur Tribal life at Sangai festival-Manipur[/caption]

 महीनों पहले से इस फेस्टिवल की तैयारी शुरू हो जाती है। इंफाल मे फेस्टिवल ग्राउंड जिसे BOAT कहते हैं, में फेस्टिवल का आयोजन किया जाता है। ग्राउंड मे एक तरफ मणिपुर की जनजातियों के जीवन को दर्शाने के लिए उन जनजातियों के घरों के स्वरूप तैयार किए जाते हैं। दूसरी तरफ खाने पीने के स्टॉल्स और तीसरी तरफ यहाँ की लोक कला से जुड़े स्टॉल्स, जहाँ पर हाथ से बने कपड़े, बाँस का हेंडीक्राफ्ट आइटम्स होते हैं।




[caption id="attachment_8142" align="aligncenter" width="1200"]sangai-festival-2016-manipur-kaynatkazi-photography-2016-www-rahagiri-com-5-of-32 Tribal art at Sangai festival-Manipur[/caption]

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इसी ग्राउंड मे एक बड़ा-सा आधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण ओपन थियेटर भी है जहाँ हर शाम सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। मणिपुर के लोगों के जीवन मे संगीत और नृत्य का बड़ा महत्व है इसीलिए यहाँ के लड़के और लड़कियाँ इन आयोजनों मे बढ़ चढ़ कर भाग लेते हैं।




[caption id="attachment_8136" align="aligncenter" width="1200"]solo-female-traveller-kaynat-kazi-Sangai-festival-manipur Folk dance at Sangai festival-Manipur[/caption]

मणिपुरी नृत्य मे वैसे तो मुख्य रूप से रासलीला का मंचन किया जाता है। जहाँ कृष्ण और अन्य पौराणिक पात्रों जीवन से जुड़ी कथाओं और लीलाओं का मंचन होता हैं। इसके अलावा यहाँ की जनजाति और आदिवासियों द्वारा नृत्य प्रस्तुत किए जाते हैं जिनमे आदिवासी जीवन की झलक मिलती है। जैसे यह नृत्य नाटिकाएँ प्राकृति के नज़दीक होती हैं, जिनमे पंछियों की आवाज़ें, जानवरों की मुद्राएँ और पोशाक मे भी जानवरों के सींग आदि का प्रयोग किया जाता है। यह नृत्य बताते हैं की यह लोग आज भी प्राकृति के कितने नज़दीक हैं।




[caption id="attachment_8137" align="aligncenter" width="1200"]solo-female-traveller-kaynat-kazi-Sangai-festival-manipur Boat race at Sangai festival-Manipur[/caption]

नृत्य के अलावा लोक जीवन के दर्शन हमे एक अन्य आयोजनों में भी देखने को मिले। संगाई महोत्सव के दिनों मे ही इंफाल मे स्थित कंगला फ़ोर्ट के सहारे सहारे बनी नहर पर पारंपरिक तरीके से बोट रेस का आयोजन किया जाता है। यह परंपरा यहाँ के राजा के समय से चली आ रही है। इस बोट रेस मे हिस्सा लेने दूर दूर से लोग आते हैं। और अपने राजा को भेंट अर्पित करते हैं।




[caption id="attachment_8143" align="aligncenter" width="1200"]sangai-festival-2016-manipur-kaynatkazi-photography-2016-www-rahagiri-com-21-of-32 Beautiful ladies of Manipur in traditional outfits at the Boat race, Sangai festival-Manipur[/caption]

[caption id="attachment_8139" align="aligncenter" width="1200"]solo-female-traveller-kaynat-kazi-Sangai-festival-manipur A gift of love for the King at the Boat race, Sangai festival-Manipur[/caption]

[caption id="attachment_8140" align="aligncenter" width="1200"]sangai-festival-2016-manipur-kaynatkazi-photography-2016-www-rahagiri-com-18-of-32 Beautiful girls of Manipur in traditional outfits at the Boat race, Sangai festival-Manipur[/caption]

यह परंपरा आज भी निभाई जा रही है। लाव लश्कर के साथ लोग पारंपरिक वेश भूषा में सज कर आते हैं और अपने आराध्य देव की पूजा करते हैं। पूजा के बाद दो पतली नावों में नाविक सवार होते हैं। और रेस आरम्भ की जाती है। जो सबसे पहले नहर का चक्कर लगा कर वापस आता है वही विजयी घोषित किया जाता है। यह रेस केरल में आयोजित की जाने वाली स्नेक बोट रेस से थोड़ी अलग है।




[caption id="attachment_8138" align="aligncenter" width="1200"]solo-female-traveller-kaynat-kazi-Sangai-festival-manipur Beautiful ladies of Manipur in traditional outfits at the Boat race, Sangai festival-Manipur[/caption]

उस रेस में नाविक बैठ कर नाव चलाते हैं जबकि यहाँ नाव में खड़े होकर बड़ी मुश्किल से बैलेंस बनाते हुए नाव चलानी पड़ती है। केरल की बोट रेस एक्शन से भरपूर होती है जबकि यह रेस धीमे धीमे आगे बढ़ती है। पुरुषों के बाद महिलाओं की रेस रखी जाती है। सुन्दर पारंपरिक परिधान मेखला में सजी यह महिलाऐं किसी अप्सरा सी सुन्दर नज़र आती हैं। वैसे तो संगाई  फेस्टिवल का मुख्य केंद्र इम्फाल ही है लेकिन एडवेंचर एक्टिविटी के लिए इम्फाल के बाहर भी आयोजन किये जाते हैं।


संगाई फेस्टिवल पहले मणिपुर टूरिसम फेस्टिवल के रूप मे जाना जाता था बाद मे इसे संगाई फेस्टिवल नाम दिया गाया। संगाई यहाँ के जंगलों मे पाया जाने वाला हिरण है। जोकि यहाँ लोकप्रिय जीव है, साथ ही आज उसके अस्तित्व पर ख़तरा मंडरा रहा है। संगाई हिरण की प्रजाति के संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए उसी हिरण के नाम पर इस फेस्टिवल का नाम संगाई पड़ा।


मणिपुर मे संगाई फेस्टिवल हर साल 21 से 30 नवंबर के बीच मनाया जाता है। मणिपुर में और भी बहुत कुछ है देखने को बस इन्तिज़ार कीजिये मेरी अगली पोस्ट का।


कैसे पहुंचें




[caption id="attachment_8145" align="alignright" width="372"]kaynat kazi Dr.Kaynat Kazi at Sangai festival-Manipur[/caption]

मणिपुर  से पहुँच सकते हैं, सड़क और हवाई यात्रा।


मणिपुर उत्तर पूर्व के अपने पड़ोसी राज्यों जैसे नागालैंड, असम, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश से सड़क मार्ग द्वारा अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। मणिपुर में रेलवे अभी तक नहीं पहुंची है। इसके लिए नज़दीकी रेलवे स्टेशन नागालैंड का दीमापुर रेलवेस्टेशन है जोकि इम्फाल से  लगभग 215 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।


मणिपुर पहुँचने के लिए सबसे आसान तरीका है हवाई यात्रा का। इम्फाल एक अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डे है जोकि दिल्ली कोलकाता आदि मुख्य शहरों से जुड़ा हुआ है।


फिर मिलेंगे दोस्तों, भारत दर्शन में किसी नए शहर की यात्रा पर, तब तक खुश रहिये, और घूमते रहिये,

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी

Monday 21 November 2016

PROPERTY REVIEW: UPRE-The most romantic restaurant in Udaipur

UPRE-The most romantic restaurant in Udaipur


solo-female-traveller, photographer; property reviewer

Imagine a city of lake and
An evening by the lakeside
Under the moon-light
U & me and the magnificent view of the city palace & the ghats
When lights flickering on the water
When the wind sings
Be seated in front of me until the morning


Yes an anonymous poet has well described the feelings about this place. This small poem has been written for non-other than a very famous roof top restaurant of Udaipur Upre. This elegant restaurant in Lake Pichola hotel offers fine dining along with authentic Mewari cuisine in a beautiful setting.  This multi cuisine restaurant just not offer the good food but the best view of Lake Pichola, city palace and Amrai ghat. It provides a panoramic view of the beautiful landscape of old city-Udaipur.


solo female traveller;www.rahagiri.com;kaynatkazi


When I first time came to know about this restaurant I was wondering about its unusual name- UPRE.


What does it mean? I thought that Udaipur is very famous in French people, may be this name came from their language but I was wrong. When I checked with the restaurant manager he told me that in Rajasthani language UPRE means a place on the upper floor.


Location


The location of this restaurant is very prominent. It is situated on the top floor of Lake Pichola Hotel. Lake Pichola Udaipur is a legendary palace situated on the peaceful island of “Bramhapuri” on the western Banks of Lake Pichola overlooking the magnificent City Palace.


Let me tell you little more about Udaipur. It is considered one of India’s most romantic destinations among foreign tourists. According to a young entrepreneur & hotelier Saurabh Arya-Udaipur is on the top of wish list of the foreign tourist but There is no choice except landing in Delhi first because Udaipur does not have an international airport otherwise 99% foreign tourist wants to visit Udaipur first.


This statement clearly says that foreign tourists love this city a lot. Udaipur has got many names like Venice of the East, city of the lakes and Kashmir of Rajasthan


Food:


Rajasthan is the land of Thar Desert, Maharajas and it is known for royalness and legacy of the Rathores. This part of India has desert so availability of green vegetables are not so easy as compared to other parts of India but it does not stop the passion of food. The have developed many techniques of culinary art. Which helps them to prepare rich food with lots of dry herbs, vegetables and spices.  In spite of the fact that Rajasthan is the land of desert,  the Rajasthani cuisine has plenty of delicacies to offer like Dal Bati Churma. Laal Maas, Mohan Maas, Ker Sangri along with Bajre Ki roti, Gatte ki Sabzi, Rajasthani Kadi and Shahi tukda.




The staff was very gentle and well behaved. Make sure you reserve a table in advance to avoid the long-standing queue at the restaurant.


To be very honest I was impressed with UPRE more for the view and the food later. I would recommend every food enthusiast for taste Lal Mas at least once. I would love to visit this place again for a wonderful evening with someone special.


Till we meet next with a new property review.

Your friend and companion

Dr. Kaynat Kazi

Friday 18 November 2016

PROPERTY REVIEW: Shivadya Resort & Spa, Manali, Himachal Pradesh

आज से पहले तक मनाली का नाम आते ही मेरे दिमाग़ मे जो पिक्चर बनती थी वो थी बहुत सारी भीड़, नए-नए शादी वाले हनीमून कपल्स, बहुत सारा ट्रफ़िक, और डीज़ल गाड़ियों से निकलता धुआँ।


हिमालय के प्राकृतिक सौंदर्य की तलाश मे आए लोगों को मनाली कुछ ऐसा ही स्वागत करता है। मैं सोचती थी कहाँ है वो लकड़ी के बने घर जिनके झरोखों से खूबसूरत पहाड़ी बच्चे झाँका करते थे, कहाँ हैं वो देवदार के घने जंगल जिनके बीच से पहाड़ी नदियाँ कल-कल करके बहती थीं?  कहाँ है वो पाईंन के कच्चे फलों से आती महक जो दीवाना बनाती थी? पर मेरी पिछली  सभी यात्राओं मे मुझे नाउम्मीदी  ही हाथ लगी। ऐसा कुछ भी नज़र नही आया। लेकिन इस बार जब शिवाद्या रिज़ॉर्ट & स्पा ने बुलावा भेजा तो उसकी लोकेशन देख कर मन मे थोड़ी- सी आस जागी। यह शोर शराबे वाला मनाली तो नही, जिस को मैं देखना नही चाहती। यह तो वही अनछुआ अनदेखा मनाली है जहाँ पहुंचने की तलाश मुझे हमेशा ऊर्जा से भर देती है। एक बार हिमाचल की खूबसूरत वास्तुकला को निहारने नग्गर कैसल भी बड़ी उम्मीद के साथ गई थी लेकिन वो खूबसूरत दुर्ग हिमाचल टूरिज़्म के तले होने के कारण बदइंतिज़ामी और घटिया रखरखाव की मार झेल रहा है। उसकी खूबसूरती की ऐसी बेक़द्री देखी की जी भर आया।


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इस बीच मैने बहुत कोशिश की कि मुझे हिमाचल की कला और संस्कृति से रूबरू होने का मौक़ा मिले वो भी क़रीब से, पर यह हो ना सका। लेकिन जब शिवादया से आइटिनरी आई तो लगा कुछ खास है इस जगह मे। यहाँ तो जाना बनता ही है।


रात भर का सफ़र कर हम दिल्ली से मनाली पहुँच गए थे शिवादया जाने के लिए हमें मनाली से 12 किलोमीटर पहले पतलिकुल नाम की जगह पर उतरना था जहाँ से हमे शिवादया के स्टाफ ने पिक किया। और हम पतली पहाड़ी रोड पर चढ़ने लगे। हम नग्गर मे थे और क़रीब 15-20 मिनट की ड्राइव के बाद हम कर्जन नाम के गांव मे पहुँचे।  यहाँ शिवादया रिज़ॉर्ट की दुर्गनुमा बिल्डिंग अपनी पूरी आन बान और शान के साथ खड़ी हुई थी। चारों तरफ सेब का बगीचा, एक तरफ धौलाधार पर्वत श्रृंखला और दूसरी तरफ पीर पंजाल पर्वत श्रृंखला और बीच मे वैली मे बसा शिवादया। किसी परियों की कहानी मे बना हिमाचली महल।


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हमारा हिमाचल के पारंपरिक अंदाज़ मे आरती टीके के साथ स्वागत करने हिमाचली परिधान मे सजी महिलाएँ इंतिज़ार कर रही थीं। स्वागत के बाद हमे लाउंज मे ले जाया गया। यहाँ कई कॉटेज हैं और इन के अलावा एक लाउंज है जहाँ बैठ कर हाथ तापते हुए हमने गरमा गरम चाय का आनंद लिया। और फिर शुरू हुआ बातों का सिलसिला।


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कहते हैं कि बात निकलेगी तो फिर दूर तक जाएगी, और निकल पड़ेगा सिलसिला इस देव भूमि हिमाचल को जानने का।  कुछ ऐसे ही ख़्याल के साथ शिवादया को बनाया गया है। अगर आप ऐसे ट्रेवलर हैं जोकि होटल मे जाकर रूम मे लॉक होना पसंद करते हैं तो यक़ीनन शिवादया रिज़ॉर्ट्स आपके लिए नही बना है। यह सिर्फ़ एक ठहरने की जगह भर नही है। ये एक मुलाक़ात है हिमाचल और हिमालय की परंपराओं से। शिवादया को बनाना वाले श्री रितेश सूद का ताल्लुक़ टूरिज़्म बॅकग्राउंड से है, लेकिन शिवादया बनाने का सपना उन्होने किसी राजा की तरह पूरा किया। रितेश जी बताते हैं कि हिमाचल आने वाले टूरिस्ट जितने देसी होते हैं उसे कहीं ज़्यादा विदेश से आते हैं लेकिन पूरे हिमाचल मे ऐसी एक भी प्रॉपर्टी नही है जो की सही मायनों मे इस प्रदेश की संस्कृति से रूबरू करवाती हो। रंग बिरंगी झंडियां और बुद्ध की फोटो तो हर जगह मिल जाएगी लेकिन ऐसी कोई भी जगह नही है जो यहाँ के भूगोल और इतिहास को ब्यान करे। बस इसी सोच के साथ शिवादया बनाना के सपने का आगाज़ हुआ।


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यहाँ हर चीज़ के पीछे एक दास्तान छुपी हुई है। अब यहाँ बने कमरों को ही ले लीजिए। आम तौर पर होटल या रिज़ॉर्ट मे कमरों के नंबर होते हैं लेकिन यहाँ नंबर न होकर इनके नाम हैं जैसे, फोज़ल, सजला, कल्पा, कुंज़ुम, ज़ांस्कर और काज़ा जो भी इन नामों को सुनेगा एक बार तो पूछेगा ही कि इन नामों के पीछे क्या कहानी है। तो फिर सुनिए रितेश जी की ही ज़ुबानी। हिमाचल परदेश जाना जाता है माउंटेन पास और माउंटेन रेंज के लिए।


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यहाँ मुख्य रूप से पाँच माउंटेन पास हैं कल्पा, कुंज़ुम, ज़ॅन्स्कर और काज़ा उन्ही माउंटेन पास के नामों पर इन कमरों के नाम रखे गए हैं, वहीं ग्राउंड फ्लोर पर बने कमरों के नाम हैं किन्नर, कैलाश, श्रीखंड, ज़ांस्कर, धौलाधार और पीर पंजाल यह हिमाचल की मुख्य पर्वत श्रंखलाएँ हैं। क्यूँ है ना रोचक। कमरों के नाम से ही हिमाचल के भूगोल की जानकारी मिल जाएगी। जब आप यहाँ से जाएँगे तो बिना अलग से एफर्ट लगाए हिमाचल के पास और पर्वत मालाओं को जान जाएँगे।


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मुख्य बिल्डिंग के पीछे जो कमरे हैं उनमे किचन भी दिया गया है, किचन का होना कमरे मे पानी की उपस्थिति दर्शाता है इसी लिए इनके नाम सिलचर और चंद्रताल हैं।  सिलचर हिमाचल की एक लेक है जोकि शिमला और मनाली के बीच जलोड़ी पास के पास पड़ती है और चंद्रताल भी हिमाचल की एक जानी मानी लेक है। तो इस बहाने आप हिमाचल की लेक के बारे मे भी जान जाएँगे।


जहाँ रिज़ॉर्ट का रिसेप्शन है वह एक ऊंची तीन मंज़िला बिल्डिंग है जिसकी वास्तुकला हिमाचल के भीमा काली मंदिर से प्रभावित है वहीं इसकी छत को देख कर मनाली का हिडंबा मंदिर याद आता है। कहीं कहीं से यह इमारत नग्गर कैसल जैसी भी नज़र आती है। इस इमारत को बनाए के पीछे एक विचार था जिसे रितेश जी बड़े मज़ेदार ढंग से बताते हैं। आप भी सुनिए।


हिमाचल के गाँव देहातों मे पत्थर और लकड़ी से घर बनाए जाते हैं।  जिनको काठ कोनी के घर कहा जाता है।  यह एक प्रकार की धरोहर है। और धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है। अब लोग नए प्रकार के सीमेंट के घर बनाते हैं। इसलिए रितेश ने हिमाचली काठ कोनी घरों की संरचना को यहाँ दर्शाया है।


तो कैसे होते हैं काठ कोनी घर? मैने जिज्ञासावश पूछा।


काठ कोनी घर 3 मंज़िला मकान होते हैं जिनमे सबसे नीचे का भाग घर के पशुओं के लिए रखा जाता है जिसे कुड कहते हैं उसके ऊपर वाला भाग लिविंग रूम और अतिथि सत्कार के लिए इस्तेमाल होता है जिसे बौडी कहते हैं जहाँ हमने एक वर्ल्ड क्लास स्पा बनाया हुआ है। उसके ऊपर वाला भाग भगवान और रसोई के लिए होता था जिसे हिमाचली मे टाला कहते हैं। यह घर का सबसे महत्वपूर्ण स्थान होता है। इसलिए इसे सबसे ऊपर वाले भाग मे रखा जाता है। जिससे किसी भी प्रकार की अशुद्धि से बचा जा सके। हमने उस परंपरा को ज़िंदा रखा है और हमारा रेस्टोरेंट भी वहीं बनाया है और उस मल्टी कुज़ीन रेस्टोरेंट का नाम भी टाला ही है। जहाँ अंदर बैठने की जगह जितनी खूबसूरत है वहीं चारों ओर बना झरोखेवाला बरामदा और भी हसीन है। यहाँ से बर्फ से ढ़के पहाड़ों को देखना बहुत अच्छा अनुभव है।


वाक़ई रितेश जी की बात सही थी। जब मैने यह बिल्डिंग देखी तो लगा कि किसी हिमाचली घर मे हूँ। बस फ़र्क़ इतना है कि यहाँ एक एक चीज़ को बड़ी नफ़ासत से बनाया गया है।


यह पूरी इमारत ढ़ाई साल मे बन कर तैयार हुई। यहाँ रात दिन एक करके लगभग 100 मज़दूरों और कलाकारों ने इस इमारत को बनाया।


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पत्थर की चुनाई से लेकर लकड़ी की नक़ारशी तक हर चीज़ मे परफेक्शन। जहाँ ये इमारत बाहर से किसी हिमाचली दुर्ग जैसी दिखती है। वहीं अंदर से किसी 5 स्टार होटल की लग्ज़री भी देती है।  ऊंची छत वाले कमरे, जिनमे देवदार की लकड़ी से वुडनवर्क किया गया है।  दीवारें जिन पर मिट्टी की लिपाई की गई है, फर्श जिसे लकड़ी का एक एक टुकड़ा जोड़ कर बनाया गया है। दीवारों पर लगे आर्टवर्क सब कुछ बहुत खास। हिमाचल के कोने कोने से चुन चुन कर लाई गई चीज़ें जैसे पट्टू पैटर्न, कांगड़ा रुमाल सिगड़ी और न जाने क्या क्या।  रितेश जी रिज़ॉर्ट मे आने वाले हर गेस्ट को अपना मेहमान समझते हैं और खुद कैंपस विज़िट करवाते हैं। यह रिज़ॉर्ट स्टेप फार्म्स के बीच मे बना है। एक तरफ धौलाधार और दूसरी तरफ पीर पंजाल पर्वतमालाएँ इस हसीन दुर्ग की रक्षा कर रही हैं। सेब के बाग़ के बीच मे आराम कुर्सी पर धूप सेंकना मेरे लिए किसी दोपहर को सुकून से जीने जैसा था।  यहाँ रिज़ॉर्ट एक कोने मे बोन फायर के लिए इंतज़ाम किया गया है। ढ़लती शाम के साथ लाइव बारबेक्यू का मज़ा ही निराला है।कभी कभी आपने सोचा है एप्पल ऑर्चिड के बीच में देवदार से ढंके पहाड़ों को निहारते हुए सर्दियों की धूप का मज़ा लेना और लांच करना। यह अनुभव बहुत मज़ेदार है। मैंने ख़ुद  किया है इसलिए बता रही हूँ। कभी आप भी ट्राय  कीजियेगा।


फूड:


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मेरी हमेशा से यह शिकायत रही है कि हिमाचल मे खाने मे स्वाद नही मिलता। पर यहाँ आकर यह शिकायत भी दूर हो गई।  मुगलई से लेकर चायनीज़ और कॉंटिनेंटल सभी तरह के खाने लाजवाब हैं।


सबसे अच्छी बात तो यह कि हमे हिमाचली परंपरागत भोजन से रूबरू होने का मौक़ा भी मिला।  रितेश जी की पत्नी नीलम जी ने हिमाचली भोजन सिखाने के लिए खास सेशन भी दिया।


पहला दिन मे ही हमने इतना कुछ जाना और देखा कि ब्यान करना मुश्किल है।  अगली सुबह पास के गाँव देखने का प्लान था।  हिमाचली गाँव बहुत खूबसूरत होते हैं यह सिर्फ़ सुना भर था लेकिन इतने ज़्यादा खूबसूरत होते हैं यह मालूम ना था। यह भी हो सकता है कि पाईन के जंगल को पार करने के बाद गाँव देखना ज़्यादा सुहाना लग रहा था।  यहाँ लोग इसे वॉक कहते हैं लेकिन हमारे लिए यह ट्रैकिंग थी।


Village near Shivadya resort & spa

पहाड़ों पर फैला देवदार का खूबसूरत जंगल जहाँ जगह जगह पानी के चश्मे फुट रहे थे।  पहाड़ की पगडंडी पर लाइन डोरी से आगे बढ़ते हुए हमने कितनी ही पहाड़ी महिलाओं को देखा जोकि अपनी पीठ पर टोकरी लाधे तेज़ तेज़ क़दमों से जा रही थीं।  यहाँ के लोग बड़े मेहनती होते हैं, खेतों मे काम करने से लेकर जंगल से लकड़ियां लाने तक सब काम खुद करते हैं।  क़रीब 20 मिनट की ट्रेकिंग के बाद हम एक ऐसी जगह पहुँचे जो कि देवदार के जंगल के बीचों बीच थी। यहाँ पहाड़ी नदी पूरी रफ़्तार  से बह रही थी।



यह जगह किसी ड्रीम लैड जैसी है। चारों तरफ ऊंचे ऊंचे देवदार के पेड़ और बीच मे बना लकड़ी का पुल जिसके नीचे एक नदी बह रही है। मन किया यहीं बैठ जाऊं और घंटों इस दूध जैसे सफेद पानी को बहते हुए देखूं। यहाँ इतनी शांति है। सिर्फ़ पानी की आवाज़ आ रही है।  दोपहर का समय है लेकिन देवदार के घने पेड़ों के कारण धूप छन-छन कर आ रही है।  पास ही एक पत्थर पर 100 मीटर की दूरी पर किसी कैफे के होने का विज्ञापन पेन्ट किया है।  चलो जंगल मे भी कॉफी का इंतज़ाम भी है।  इस जगह मे इतना आकर्षण है कि अगर मुझे ज़बरदस्ती उठा कर लेकर न जाया जाता तो शायद मैं घंटों वहीं बैठी रहती। पर जाना तो होगा। सामने एक ऊंचा पहाड़ खड़ा है जिसको हमे पार करना है।


ओह


एक पहाड़ और, अब तो टाँगें भी साथ छोड़ रही हैं।  मैने सोचा


पर कोई चारा नही है, मैं जंगल के बीचों बीच हूँ और पहाड़ को पार करके ही गाँव मैं पहुंचा जा सकता है और उस गाँव से होकर सड़क तक जाया जा सकता है।


खैर मैने धीरे धीरे जंगल का पूरा आनंद लेते हुए इस 1 घंटे की वॉक को 3 घंटों मे पूरा किया।  हमने रास्ते में यहाँ वहां बिखरे पाइन  के फलों को भी चुना।



जल्दी किस बात की है।  इस जंगल को जब तक अपनी स्मृतियों  मे न उतार लूँ तब तक यहाँ आने का फायदा ही क्या है। मैं यहाँ आने भर के सरोकार से थोड़े ही आई हूँ।  इस जंगल का एक टुकड़ा अपने भीतर सॅंजो कर अपने साथ ले जाऊंगी। जो देवदार के कच्चे फलों-सा महकेगा मेरी स्मृतियों मे। यह सोचते सोचते मैं पहाड़ भी पार कर गई और सामने एक खूबसूरत गाँव मेरा इंतिज़ार कर रहा था।  लकड़ी के बने काठ कोनी वाले घर और उनमें बसे लोग। किसी पेंटर के कैनवास जैसे।


उन घरों के झरोखों से महिलाएँ और बच्चे झाँक रहे थे।  मैने हाथ हिला कर अभिवादन किया। यहीं गाँव के पास ही एक ग्यारहवीं शताब्दी का शिव मंदिर है। कहते हैं इस मंदिर की बड़ी मान्यता है। मैने मंदिर की कुछ तस्वीरें खींची। ये वाक़ई एक प्राचीन मंदिर है।



हमे होटल पहुँचते पहुचते दोपहर हो चली थी। भूख भी ज़ोरों की लग रही थी। हमने खाना पीना खाया और आराम करने चले गए। जंगल की सैर के बाद पैर दुखने लगे थे। मुझे स्पा की याद आई। फिर क्या था पहुँच गई स्पा। ट्रॅकिंग के बाद स्पा विज़िट की बात ही कुछ और है। जिस तरह शिवादया रिज़ॉर्ट को पेरफक्शन के साथ बनाए मे कोई कसर बाक़ी नही रखी गई उसी तरह इस स्पा को भी बड़े क़रीने से बनाया गया है।



नेशनल और इंटरनेश्नल मसाज के साथ जकुज़ी, स्टीम बाथ सभी कुछ तो है यहाँ। एक बात मुझे यहाँ की बहुत अच्छी लगी। चाहे वो कुक हो या स्पा मे थैरेपिस्ट सभी प्रोफेशनल्स ट्रेंड हैं और एक्सपीरियेन्स वाले हैं। कोई ताज होटेल्स से आया है तो कोई रेडीसन से। शायद इसी लिए इनकी प्रेज़ेंटेशन इतनी परफैक्ट है।


हमारी आइटिनरी के हिसाब से शाम को कुछ खास होने वाला था। मुझे उसका बेसब्री से इन्तिज़ार था।



जी हाँ शाम को खास हमारे लिए पट्टू सेशन का आयोजन किया गया था जोकि यहाँ के पारंपरिक पोशाक है। नज़दीक के गाँव से दो हिमाचली महिलाएँ अपने साथ पट्टू लेकर आईं थी और एक एक कर हम सबने इस पोशाक को पहना। पट्टू एक हाथ से बना ऊनी वस्त्र होता है। आप इसे 10 मीटर की ऊनी साड़ी भी मान सकते हैं। हिमाचल की महिलाएँ इस वस्त्र को पहनती हैं।  इसे पहनने का तरीका साड़ी से थोड़ा भिन्न है। पट्टू एक प्रकार का क़ीमती वस्त्र है और इस पर बने बेल बूटों के आधार पर इस की क़ीमत बढ़ती जाती है। एक पट्टू की क़ीमत तीन हज़ार से लेकर 10-15 हज़ार तक होती है।


हम सब ने पट्टू सेशन को खूब एंजाय किया। शिवादया मे हमारे दो दिन कैसे बीत गए पता ही नही चला। सच कहूँ तो यहाँ आकर एक बार भी मनाली के बिज़ी बाज़ार मे जाने की इच्छा नही हुई। यहाँ इतना कुछ है जीने और महसूस करने को कि आपका मन ही नही करेगा कि रिज़ॉर्ट से बाहर भी जाया जाए।


 लेकिन फिर भी आप सैर सपाटा करना चाहते हैं तो मनाली मात्र 12, रोहतांग पास 63, सोलांग वैली 26 किलोमीटर दूर है। नग्गर बहुत नज़दीक है, मात्र 8  किलोमीटर की दूरी पर।


फिर मिलेंगे दोस्तों किसी और मोड़ पर

किसी और दिलकश नज़ारे के साथ। तब तक आप बने रहिये मेरे साथ

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा ० कायनात क़ाज़ी

 

Tuesday 15 November 2016

Property review: Giri Camps, Badgala, Tehsil Rajgarh, Sirmaur, Himachal Pradesh

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  • Classification: Adventure/ camping

  • Room Category: Cottage

  • Month of Stay: October


To break away from the hustle-bustle of life and everyday stress, a few days in the lap of nature rejuvenates one. A place where one can be free from official emails or continuous social media updates. Telephones and mobiles only fulfill the requirement of connecting with our near and dear ones. It is said that technology and its over use disturbs our biological clock, hence it becomes imperative that we spend a few days amidst nature.


When I got a chance to realign my biological clock, I decided to go to Giri Camp. I set out in the trail of Himalayas in the steep curves of the hilly terrain. Giri camp is located in District Solan of Himachal Pradesh enroute to Shimla. Journey to Solan from Delhi-NCR is quite easy. One can go from Delhi to Chandigarh and then via the Himalayan express to reach Solan. The real adventure begins after reaching Solan. On travelling 12 kilometer on Rajgarh road from Solan, a dirt mountainous track awaited us that merged with the River Giri’s bed. We began our trek on the dirt track. After walking for 2-3 kilometers it seemed we reached a dead as what we saw was a small river.


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Now what?


Tired after the treacherous trek, we look at each other. A grin on the staffer of Giri camp left us even more surprised. On the other bank of the river, we see our destination with Anurag (Camp owner) waving and welcoming us.


Puzzled I asked the staffer, “Where is the boat?”


Unbaffled he replied, “There is no boat.”


“Then, how would we cross the river?” I ask.


“By holding each other’s hand”, he replied. “Don’t worry this is a calm river and we are also there to assist you”, he added.


Fear and excitement gripped us. None of us had attempted anything like this before. We overcame our fear and decided to take the plunge. The faith of the accompanying staffers gave us the courage to cross the river with our fellow trekkers. We stepped into the river and almost froze in the cold water.


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The icy cold water sent a shivering down our spine. To hide our fears, we all started laughing hysterically. The river became deeper as we slowly and carefully took each step. As we reached the middle, half of my body was immersed in water. Finally, we reached the shore. The water that made us freeze with fear now seemed no stranger anymore and we reached our destination- Giri Camp.


Giri camp had three cottages and many tents.


Paved amidst green grass, the red tents looked like colorful flowers.


Giri camp is situated in a beautiful setting on the banks of the river slightly on a height. It is surrounded by pine trees overlooked by the mighty Himalayan range and its snow covered peaks.


We spent two wonderful days in the relaxed ambiance beneath the clear blue sky and a calm river. The friendly waters invited us to play water sports. It is very easy to swim in the river as there is hardly any high current in it.


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The owner of the camp is a perfect host and catered to all our needs well. Whether it was tasty food or bon fire under the full moon, everything seemed picture perfect. The guava trees in the camp entice you to taste the tree ripened fruit. One should definitely try the naturally riped guavas as this taste is hard to find anywhere else.


The place may not be too luxurious, yet it provides a very comfortable stay. The only luxury you would enjoy is the bountiful nature.


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The camps have western style washrooms, but when the clear blue waters of a calm river attract you, who would like to bathe in a small enclosure. Such clean rivers with crystal clear waters have become a rarity in our country. One can spend hours gazing at the river. The flowing water leaves you mesmerized and refreshed for all activities of the day. One can even explore many waterfalls in the forest trail.


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I am sure, the two days spent in the lap of nature would never fade in our memories.


Till we meet next, in a new destination of the Himalayas.


Exploring the unseen.


Be happy and keep travelling.


Your friend and companion.


Dr. Kaynat Kazi


 

Kalaripayattu: Ancient Martial Arts

Kalaripayattu: Ancient Martial Arts


There are many institutes and organizations in Kerala that are engaged in the preservation and promotion of art form of the regions of Kerala and its surrounding states. One such organization if Cochin Cultural Centre that is involved in the promotion of many art forms like Kathakali, Mohiniattam, Bharatnatyam and Kalaripayattu.


Cochin Cultural Centre is situated on the Sangamam Maniketh Road adjacent to Fort Kochi Bus stand. Every evening the place is alive with performances. The performances are slotted and the entire programme is of a duration of four hours starting from 5 pm till 9 pm. Viewer have an option for enjoying the whole programme or watching selected art forms. In this post I will talk about the ancient martial art form of Kalaripayattu.


Talking about Kalaripayattu, let us first know about Kalaripayattu and its history.


About Kalaripayattu


Sage Agastya is believed to be the founder and patron of Kalaripayattu. It has a legend attached to is that is popularly narrated by the people of the region. Sage Agastya was a short height and lean man. He devised Kalaripayattu as a defensive tactic against wild animals. In those times, the population of tigers was large and other wild animals also used to attack human beings. He developed this form to defend and protect from the attack of the animals. Sage Parshuram is also associated with Kalaripayattu.  He modified the original form and added it to war tactics. He also popularized the use of arms as a combat art. Parashurama was a master in the art of weaponry and he emphasized more on weapons than striking and grappling.


Kalaripayattu is an old martial art form. This is one of the oldest form that is still popular. The credit of keeping this old tradition alive solely rests on the efforts of the local people. The warrior communities of Kerala like the Nair’s and Chavhan have played an important role in the continuation of this art. These communities used to practice this martial art for honing their warrior skills. It is also a form of combat. Historian Elamkulam Kunjam Pillai dates the development of the present form of Kalaripayattu to the 11th Century extended period of warfare between the Chera and Chola dynasties.


History


The word Kalaripayattu is derived from two words: kalari and payattu. Kalari means a battlefield or combat arena while payattu means practice or working hard. Nair and Chavhan communities used to train their children from a very young age. They were admitted to specialized schools where they were trained in Kalaripayattu rigorously. Training at that age, the children were flexible and with time they became quicker, more agile and imbibed the art of Kalaripayattu. Once they were adept in it, they were imparted the training of fighting with arms like sticks and other arms.


Kalaripayattu has three regional variants that are distinguished by their attacking and defensive patterns. These styles are related to the different regions of Southern India


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Source 

Southern Kalaripayattu


This style is related to the region of Travancore. This form uses the preliminary empty handed techniques only.


 



Northern kalaripayattu


This style is popular in Malabar and the emphasis is more on weapons than empty hands in this style.



Central kalaripayattu


The Central kalaripayattu is practiced mainly in northern parts of Kerala like Kozhikode, Mallapuram, Palakkad, Thrissur and Ernakulam. It is a mix of the Northern and Southern styles of Kalaripayattu.


The Cochin Cultural Centre showcases all the three styles of Kalaripayattu.




source

There is a big difference in seeing the styles live than on the television screen. It is amazing to see the tactics followed by the performers. They charge with the speed of lightning and the flexibility of body is immense. Young performers are masters in this form of martial arts. They depict the aglity of a cheetah and strategic thinking of a fox that leaves the opponent in awe.


If you happen to visit Kerala, then Kalaripayattu is a must watch for you.


Till we meet next with a new destination and new stories.


Be happy and keep travelling.


Your friend and companion


Dr. Kaynat Kazi

देवों की दिवाली - देव दिवाली, बनारस


देवों की दिवाली - देव दिवाली, बनारस



 

भारत में दीपावली सबसे बड़ा उत्सव माना जाता है। वैसे तो देश भर में दिवाली उल्लाहस के साथ मनाई जाती है.ऐसा माना जाता है कि दिवाली के साथ उत्सवों और ख़ुशियों का आगमन हो गया है। जब गुलाबी सर्दी की आहट होती है। दिवाली के बाद कार्तिक पूर्णिमा के दिन बनारस में देव दिवाली मनाई जाती है। यह पर्व है जनमानस का, उसके हर्ष और उल्लास का।

 

यूं  तो काशी  देश की पवित्र सप्तपुरियों में से एक है। यह स्थान प्रसिद्ध है सैंकड़ों  मंदिरों, घाटों, पुरातन परंपराओं की धरती और जीवनदायनी माँ गंगा के लिए।  बनारस की गिनती विश्व के उन प्राचीनतम जीवित शहरों में होती है जोकि अनन्त काल से धरती पर जीवित हैं.शायद इसीलिए इस पावन धरती पर अनेक पर्व और उत्सव वर्ष भर मनाए  जाते हैं।

 










Lighting up the light@Dev Diwali Celebration 

 

 इन उत्सवों के  प्रति जनसामान्य में एक अद्भुत आकर्षण और गहन आस्था  है। बनारस की पर्व परंपरा की ऐसी ही एक कड़ी है। यहां कादेव दीपावलीपर्व है। यहाँ के लोग मानते हैं कि जब धरती पर रहने वाले लोग दीपावली मना लेते हैं उसके  एक पक्ष बाद कार्तिक पूर्णिमा पर देवताओं की दीपावली होती है। दीपावली मनाने के लिए देवता स्वर्ग से गंगा के पावन घाटों पर अदृश्य रूप में अवतरित होते हैं। यह पर्व बनारस की प्राचीन संस्कृति का खास अंग है।

 










Dev Diwali Celebration

 

यह पर्व है बाबा विश्वनाथ की काशी नगरी में जन्मे हर व्यक्ति का। यहाँ की परम्परा है कि देव दिवाली पर शहर का हर व्यक्ति, समूह, संगठन, संस्था के लोग अपनी आस्था और सामर्थ  अनुसार गंगा के घाटों को दीपकों से सजाने आता है। पूरे शहर में जैसे जनसैलाब उमड़ पड़ता है।

 










Evening boat ride

 

दिन भर लोग बाजार से दीपक आदि की खरीदारी करते हैं और शाम होते होते गंगा घाटों की ओर चल पड़ते हैं। लोकल प्रशासन और उत्तर प्रदेश टूटरिज़्म डिपार्टमेन्ट मिलकर इस पर्व का आयोजन गंगा महोत्सव के रूप में एक खास उत्सव के तौर पर करते हैं। यह महोत्सव पांच दिनों तक चलता है।

 










Dev Diwali Celebration 


इस पांच दिवसीय महोत्सव के दौरान यहां अनेक प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं। उनमें शास्त्रीय संगीत की अनेक नामचीन हस्तियां अपनी मनमोहक प्रस्तुतियों से भाव-विभोर कर देती हैं। ऐसे कार्यक्रमों में विदेशी सैलानियों की संख्या भी बहुत होती है। गंगा महोत्सव पर लगने वाले शिल्प मेले में सैलानी उत्तर प्रदेश की लोक शिल्प कलाओं से रू--रू होने के अलावा मनपसंद शिल्प खरीदते भी हैं।

 










Assi Ghat

 

 गंगा महोत्सव के अन्तिम दिन  कार्तिक पूर्णिमा पर उत्सव का भव्य रूप देखने को मिलता है, जब गंगा के पवित्र घाटों पर श्रद्धालुओं द्वारा अनगिनत दीपक जलाए जाते हैं, जो एक अलौकिक दृश्य होता है। यहाँ के स्थानीय लोग और नगर निगम मिलकर कई दिन पहले से ही घाटों की साफ सफाई करवाते हैं और देव दिवाली वाले दिन लोग बढ़-चढ़ कर इन घाटों पर अनगिनत दीपक जलाते हैं। सभी घाटों पर महिलाऐं पूजा अर्चना में लगी हुई थीं.


 

Rituals


 

दोपहर बाद से दीपक लगाना शुरू किया जाता है और शाम होने तक सारे घाट दीपकों से भर जाते हैं। इस अदभुत दृश्य को देखने लोग दूर दूर से आते हैं। देशी विदेशी सैलानी नौका विहार से इस पूरे द्रश्य का अवलोकन करते हैं।  दीप श्रंखलाओं को देख लगता है मानो आसमान के टिमटिमाते तारे धरती पर उतर आए हों। घाटों पर शाम से ही देखने वालों की भीड़ जुट जाती है और रात होते ही बहुत भीड़ हो जाती है। लोग गंगा में फूल और दीपक विसर्जित करते हैं।

 











Flowers


देव
दिवाली का पूरा मज़ा लेने के लिए आप दुपहर बाद ही अस्सी घाट पर पहुँच जाएं। अस्सी घाट गंगा घाटों में सबसे आखिर में स्थित है। गंगा सेवा समिति इस घाट पर भी पूजा की व्यवस्था करती है। अगर आप नौकाविहार करते हुए देव दिवाली देखना चाहते हैं तो आपको बोट यहीं से मिलेगी।

 











Boat ride @ Dev Diwali

 

अस्सी घाट से लेकर हरिश्चन्द्र घाट, दशाश्वमेध घाट, राजेन्द्रप्रसाद घाट जहाँ तक नज़र जाए घाट दीपकों की रौशनी से भर जाते हैं। यहाँ 80 से अधिक घाट मौजूद हैं। केदार घाट पर एक प्रसिद्ध कुण्ड है. ऐसी मान्यता है की यहाँ पर संतान के लिए मन्नत मांगने पर पूरी होती है। यहाँ जितने भी घाट हैं सबके साथ कुछ ऐतिहासिक जुड़ाव है। अधिकतर घाट राजाओं द्वारा बनवाए गए थे। जैसे जानकी घाट सुरसन्द एस्टेट की रानी ने, पंचकोट घाट मध्यप्रदेश के राजा ने और मनमंदिर घाट जयपुर के राजा जय सिंह बनवाया था।

 










Kedar Ghat

 

शाम गहराते ही राजेन्द्रप्रसाद घाट पर महाआरती प्रारम्भ हुई। लाइन से लगे पुजारी हाथों में बड़ा सा दीपदान लिए माँ गंगा की आरती में तल्लीन थे.धूप-लोबान की सुगन्ध से घाट महक उठे। 

 










Maha Aarti@Ganga Ghats

 

मां गंगा की महाआरती में पुरोहितों  के मुख से मंत्र फूटे। हर हर गंगे का घोष नाद चारों दिशाओं में गुंजायमान था। ऐसा अलौकिक द्रश्य कि आँखों में न समाए। शंखनाद, घंटा-घडि़याल और डमरू की टनकार ऐसी थी मानो स्वर्ग में विराजे देव स्वम पधार रहे हों। 


 










Deepak



जिस प्रकार  मैसूर का दशहरा प्रसिद्ध है और लोग दूर दूर से देखने आते हैं उसी तरह देव दिवाली भी विश्व प्रसिद्ध है इसे देखने लोग विदेशों से आते हैं. जीवन में एक बार देव दिवाली देखने ज़रूर जाएं। क्योंकि यह पर्व हिन्दू कैलेंडर की तिथि अनुसार मनाया जाता है इसलिए जाने से पहले डेट्स  एक बार चैक  कर लें.










Maha Aarti@Ganga Ghats










Maha Aarti@Ganga Ghat

 

मेरी सलाह: अगर आप बोट में बैठ कर देव दिवाली कैप्चर करना चाहते हैं तो आपको अच्छे  शॉट्स नहीं मिलेंगे क्योंकि बोट घाटों से बहुत दूरी पर होती है और लगातार हिल रही होती है।

यह पूरा कार्यक्रम देर रात तक चलता है। रात तक मौसम थोड़ा ठंडा हो जाता है। इसलिए सर्दी के इन्तिज़ाम के साथ जाएं।

 











Map of Ganga Ghats

 

फिर मिलेंगे दोस्तों, भारत दर्शन में किसी नए शहर की यात्रा परतब तक खुश रहिये, और घूमते रहिये,


आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त



डा० कायनात क़ाज़ी