राजिस्थान के दक्षिण पूर्व में बसा एक सुन्दर और शांत नगर बूंदी अपने में राजसी धरोहर को समेटे हुए है। इस शहर की स्थापना राव देवाजी ने 1242 ई० में की थी। कहा जाता है कि मीणा समाज में एक सरदार हुए थे जिनका नाम बूंदा मीणा था उनके नाम पर ही इस नगर का नाम बूंदी पड़ा। बूंदी शहर राजिस्थान के हड़ौती क्षेत्र में आता है। हड़ौती अंचल की संस्कृति और कला के दर्शन यहाँ बहुतायत में दर्शनीय हैं। बूंदी विश्व अपनी स्थापत्य कला, अद्भुत चित्रकला शैली, विशाल बावड़ियों, किले और झीलों के लिए प्रसिद्ध है। तीन ओर से अरावली पर्वत मालाओं से घिरा बूंदी वर्ष भर हरा भरा रहता है। यह नगर राजिस्थान के अन्य शहरों से भिन्न है। राजिस्थान में इतनी हरयाली देख कर आप अचम्भित
हो जाएंगे।
जयपुर से राजमार्ग 12 से होकर
हम जैसे ही बूंदी शहर में प्रवेश करते हैं तो उँची पहाड़ी पर बना तारागढ़ किला दूर
से ही पर्यटकों को बूँदी की शान शौकत की कहानी सुनाने लगता है। यह किला “स्टार फोर्ट”
के नाम से भी जाना जाता है। इस दुर्गम किले का निर्माण १४वीं शताब्दी में बूंदी के
संस्थापक राव देव हाड़ा ने का निर्माण कराया था। बाद में उसके उत्तराधिकारियों ने भी
समय-समय पर किले, महलों का निर्माण करवाया। इनमें छतर महल, बादल महल, रतन दौलत, दीवान
ए आम कुछ खास इमारतें हैं। बादल महल, रतन दौलत, दीवान ए आम, राव राजा रतन सिंह ने सन
1607 -31 के अंतराल में बनवाए थे। किसी
ज़माने में चमन जैसा दिखने वाला बूंदी जिले का तारागढ़ किला आज खंडहर में तब्दील हो
गया है। पहाडि़यों की ऊंचाई पर जब हम लोग मुश्किल से ऊपर चढ़कर किले तक पहुंचते तो वहां की जर्जर हालत सारी कहानी बयान कर रही थी
। वहां पर पर्यटकों की भीड़ की जगह बंदरों और लंगूरों का झुंड आपका स्वागत करते मिलेंगे।
आज इस किले का सब कुछ खंडहर में तब्दील हो चुका है। कोई देखभाल करने वाला नहीं है।
बादल महल तारागढ़ किले के भीतर स्थित है जो
अपने सुंदर भित्ति चित्रों के लिए प्रसिद्ध है। महल की दीवारें खूबसूरती से चित्रित
हैं जो मध्ययुगीन काल में बनाई गई हैं। इन चित्रों में दिखाए गए चेहरे एवं फूल काफी
रोचक हैं. इन चित्रों को ध्यान से देखा जाए तो पता चलता है कि इस क्षेत्र में कभी अफीम
के बीज या खशखश की खेती होती थी और चीन के साथ अफीम का व्यापार भी होता था।
गढ़
महल के भीतर एक चित्रशाला है. इस सुंदर संरचना के आकर्षक हैं- मंडप जोकि बूंदी विद्यालय के लघु चित्रों की कलात्मकता को दर्शाते
हैं। चित्रशाला की दीवारों पर रागमाला और रासलीला की कहानियों के दृश्यों को दर्शाते
चित्र हैं। यहाँ बूंदी में चित्रकला की एक विशेष शैली का विकास हुआ जिसे बून्दी शैली
के नाम से जाना जाता है। यह शैली मेवाड़ से
प्रभावित थी। बून्दी शैली में लाल, पीले रंगो
की प्रचुरता, छोटा कद, प्रकृति का सतरंगी चित्रण इस चित्र शैली में विशेष रूप से पाया
जाता है । रसिकप्रिया, कविप्रिया, बिहारी सतसई, नायक-नायिका भेद, ऋतुवर्णन बून्दी चित्रशैली
के प्रमुख विषय थे। इस शैली में पशु-पक्षियों का श्रेष्ठ चित्रण हुआ है, इसलिए इसे
‘पशु पक्षियों की चित्रशैली’ भी कहा जाता है। इस चित्रशाला में बून्दी शैली के कुछ
बेजोड़ नमूने देखने को मिलते हैं। अगर आप कला प्रेमी हैं तो चित्रशाला देखने के लिए
अलग से समय निकालिये। चित्रशाला शाम पांच बजे पर्यटकों के लिए बंद कर दी जाती है। बूंदी
की गलियों में घूमते हुए आपको घरों के बाहर सुन्दर भित्ति चित्र दिखाई देंगे। इससे पता चलता है कि
कला के प्रति प्रेम केवल राजघरानों तक ही सिमित नहीं रहा है। बूंदी चित्रकला आम जान
जीवन का भी अभिन्न अंग है।
छतर महल का निर्माण राव छत्रसाल ने सन 1660 में करवाया
था। यह एक निजी दुर्ग है इसलिए यहाँ टिकट थोड़ा महंगा है, कैमरे के लिए अलग से टिकट लेना
होता है। यह दुर्ग निजी हाथों में होने के कारण रखरखाव की कमी झेल रहा है। किले में
एक कैफ़े भी है पर सुविधाओं का आभाव है। किले की ऊंचाई से बूंदी शहर का विस्तार एक सुंदर
कैनवास जैसा नज़र आता है। इन महलों की दीवारें सुन्दर भित्ति चित्रों से सजी हुई हैं
। किले का सबसे बड़ा बुर्ज भीम बुर्ज कहलाता है। किले के अन्दर एक काफी बड़ा तालाब
भी है. आज यह दुर्ग राजपूत वास्तुशैली का एक भव्य उदाहरण माना जाता है। तारागढ़ परिसर
में चार पक्के विशाल जलाशय है। यह जलाशय कभी नहीं सूखते हैं ।यह जलाशय प्राचीन
समय की निर्माण इंजीनियरिंग (अभीयांत्रिकी) के परिष्कृत और उन्नत विधि का प्रमुख उदाहरण
है किले के झरोखों से नीचे की ओर देखने पर नवलसागर झील का सुंदर रूप अलग ही नजर आता
है। किले की तलहटी में बसा पुराना बूंदी शहर ब्लू सिटी जोधपुर जैसा दिखाई देता है।
यहाँ पर लोग अपने घरों को चूने में नील मिला कर पुताई करवाते हैं। घरों को रंगने की
यह परंपरा बहुत पुरानी और वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से बहुत उपयोगी है। चूना क्योंकि एक
प्रकार का रसायन होता है इसलिए उसके प्रभाव से घर के कीड़े मकोड़े मर जाते हैं। साथ ही
चूना काफी ठंडी प्रकृति वाला होता है जिससे घर गर्मियों में ठन्डे बने रहते हैं। इसके
अलावा चूने से घर की पुताई करवाना बहुत किफायती भी होता है जिससे आम आदमी की जेब पर
भार भी नहीं पड़ता और नीला रंग राजसी आन बान और शान का प्रतीक है। बूंदी
एक दुर्गनगर है, जिसमें गिरि दुर्ग और स्थल दुर्ग की विशेषताएं जुड़ी हैं। इसके चार
दरवाज़े हैं। पाटनपोल, भैरवपोल, शुकुलवारी पोल एवं चौगान। एक तरह से यह दुर्ग दो भागों
में बंटा है। ऊपरी भाग को तारागढ़ कहा जाता है । जहाँ तारागढ़ फोर्ट है और नीचे के भाग को गढ़ कहते हैं।
बूंदी नगर में लगभग 71 छोटी बड़ी बावड़ियां हैं और अगर आसपास के गांवों को जोड़ लिया जाए तब यह आंकड़ा 300 के पार चला जाता है। बूंदी शहर के बीचों बीच स्थित “रानी जी की बावड़ी” की गणना एशिया की सर्वश्रेष्ठ बावड़ियों में की जाती है। इसमें लगे सर्पाकार तोरणों की कलात्मक पच्चीकारी देखते
ही बनती है। बावड़ी की दीवारों में विष्णु के अवतार मत्स्य, कच्छप वाराह नृसिंह वामन
इन्द्र सूर्य शिव पार्वती एवम् गज लक्ष्मी आदि देवी देवताओं की मूर्तियाँ लगी हैं।
बावड़ी की गहराई छयालीस मीटर है। इस अनुपम बावड़ी का निर्माण राव राजा अनिरूद्व सिंह की रानी नाथावती ने 1699 ई. में करवाया था। इस कलात्मक बावडी में प्रवेश के लिए तीन दरवाज़े हैं ।
बावड़ी के जल-तल तक पहुचने के लिए सौ से अधिक सीढ़ियों को पार करना होता है। यह कलात्मक बावडी उत्तर मध्य युग की देन है। हाल ही में इस बावड़ी को एशिया की सर्वश्रेष्ठ बावड़ियो में शामिल किया गया है। इस बावड़ी की स्थापत्य कला देखने लायक है। राजपुताना स्थापत्य कला के साथ मुग़ल स्थापत्य कला का अनुपम संयोग यहाँ देखने को मिलता है। रानी जी की बावड़ी को संरक्षित ईमारत का दर्जा प्राप्त है। इसके रखरखाव की ज़िम्मेदारी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग उठाता है। बावड़ी के जीर्णोद्वार के साथ पुरातत्व विभाग ने इसके अहाते में एक छोटा उद्धान भी विकसित किया है। सैलानी और आसपास से आए लोग यहाँ बैठ कर थकन मिटाते हैं।
भारत में बावड़ी निर्माण की परंपरा बहुत पुरानी है। जहाँ एक ओर यह जनउपयोगी कला के रूप में देखी जाती थी वहीँ दूसरी और इसका सांस्कृतिक महत्व भी काफी था। जान मानस की सुविधा का ध्यान और जल संरक्षण के लिए उच्च स्तरीय वास्तुकला, तकनीकी ज्ञान, यह कुछ ऐसे कारक थे जिसने देश में बावड़ियों के निर्माण में मुख्य भूमिका निभाई। बावड़ी बनवाना यूँ तो हिन्दू राजाओं की परंपरा का अंग थी पर मुगलों ने भी इस परंपरा का निर्वाहन खुले दिल से किया। राजिस्थान में बावड़ी केवल जल के उपयोग की
चीज़ नहीं सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का लगभग केंद्र भी होती थी, यहाँ पूजा-अर्चना
भी की जा सकती है बूंदी में बनी यह बावड़ियां
यह दर्शाती हैं कि प्राचीन भारत में
जल-प्रबंधन की व्यवस्था कितनी बेहतरीन थी। यहाँ आकर लोग मुण्डन और विवाह से जुड़े अनेक
संस्कार संपन्न करते हैं| बावड़ी निर्माण परोपकार की भावना का एक उत्कृष्ट नमूना है।
बावड़ी बनवाना जहाँ राजा द्वारा जन सुविधा के लिए किया जाने वाला ज़रूरी काम था वहीँ
संपन्न परिवारों द्वारा भी बावड़ियां बनवाई जाती थीं। यह उल्लेखनीय है कि उस समय राजा
की भांति सामंत परिवार की स्त्रियाँ भी जनहित संपादन के लिए बावड़ियाँ बनावती थीं और
उस निर्माण को एक सामाजिक तथा धार्मिक महत्व दिया जाता था|
यूँ तो समूचे राजिस्थान में प्राचीन
समय में जलसंरक्षण एवं संवर्धन की खास परम्परा रही है.इसीलिए यहाँ बावड़ियां और झीलें
बनाई गई हैं पर बूंदी रियासत ने इस पर विशेष बल दिया और बावड़ी और झीलों का निर्माण
करवाया। बूंदी में पाई जाने वाली झीलें प्राकृतिक झीलें नहीं हैं, बल्कि इनका निर्माण
यहां के राजाओं ने करवाया था। यह झीलें आज बूंदी की खूबसूरती का खास हिस्सा हैं। दुर्ग
पहाड़ी के साये में स्थित नवलसागर उनमें से एक है। चतुर्भुज आकार की इस झील के मध्य
वरुण देवता का मंदिर है।
कुछ दूर सुखसागर झील एक हरे भरे
उद्यान के मध्य पसरी है। जहां राजाओं की ग्रीष्म विश्रामगाह सुख महल भी बना है। गर्मियां
बढ़ते ही यह झील कमल के फूलों से भर जाती है। इसी तरह फूलसागर में भी 20वीं शताब्दी
में निर्मित यहां का नवीनतम महल स्थित है। शहर से करीब तीन किलोमीटर दूर जैतसागर झील
पहाड़ियों के साये में स्थित है। इस झील में लगे फव्वारे के चलने पर झील का झिलमिलाता
पानी अधिक सुंदर लगता है।
चौरासी खंभों की छतरी बूंदी शहर
के बीचों बीच घनी आबादी में स्थित है. इस छतरी में कुल 84 खंभे है। इसीलिए इसे इसे
चौरासी खंभों की छतरी कहा जाता है। यह स्मारक कृतग्यता के सम्मान की ईमारत है। इसको
राव राजा अनिरुद्ध सिंह के बेटे की धाय देवा की याद में बनवाया गया था। यह संरचना एक
ऊँचे चबूतरे पर बनी हुई है जिसमें दो मंजिलें हैं। इस बरामदे को पूजा स्थल एवं एक सम्मान
स्मारक के रूप में जाना जाता है।
इस संरचना के स्तंभों पर कई विभिन्न
चित्रों की नक्काशी की गई है जो सत्रहवीं शताब्दी के राजपूत राजाओं की जीवन शैली को
दर्शाती हैं। इस संरचना के आधार पर कई विभिन्न प्राणियों के चित्र बने हुए हैं जबकि
दूसरी मंजिल पर मध्य में एक गोल वलयाकार छत है जिसके कोनों पर चार छोटे गुंबद है।इस
छतरी के मध्य में पावन शिवलिंग स्थित है। चबूतरे पर हाथी एवम् घुड़सवारों की कतारबद्ध मूर्तियाँ उकेरी
गई हैं। इसके अलावा क्षार बाग में बूँदी के राजाओं तथा राज परिवारों
के सदस्यों की छयासठ छतरियाँ हैं। इनमें से कुछ संगमरमर की बनी हुई हैं जिनमें खूबसूरत
पच्चीकारी की गई है।
गर्मी के मौसम को छोड़ कर साल में किसी भी समय बूंदी जाया जा सकता है । स्थानीय लोगों का मानना है कि बूंदी आने का उपयुक्त समय मानसून के साथ शुरू होता है। दरअसल उस समय यहां की झीलें अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करती हैं।
अगर आप रजिस्थानी संस्कृति से रूबरू होना चाहते हैं तो जुलाई-अगस्त में आने वाली ‘कजली तीज’ के उत्सव के समय बूंदी ज़रूर जाएं । कजली तीज इस क्षेत्र का विशेष पर्व है। भादों माह की तीज को आने वाले इस पर्व पर यहां के लोगों विशेषकर महिलाओं का उल्लास देखते ही बनता है। तीन दिन तक चलने वाला यह पर्व पर्यटकों को खूब भाता है। इस समय रजिस्थानी महिलाऐं विशेष रूप से तैयार होती हैं और हाथों में मेहँदी सजाती हैं।
फिर मिलेंगे दोस्तों, भारत दर्शन में किसी नए शहर की यात्रा पर,
तब तक खुश रहिये, और घूमते रहिये,
आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त
डा० कायनात क़ाज़ी