डर का चेहरा बदल गया है अब मेरी दिल्ली में
क्या आप ने डर को कभी देखा है?
क्या डर का भी कोई चेहरा होता है?
हां, होता है...
मैने डर को देखा है,
उसके चेहरे को देखा है.
बहुत करीब से देखा है,
दिल्ली की सड़कों पर,
आफिस के कमरों में
मॉल में, रेस्टोरेंट में, सिनेमाघर में.
जब भी दिल्ली की सडकों पर निकलती हूं
लोगों के चेहरों से डर लगता है,
चेहरों के पीछे छुपे नकली चेहरों से डर लगता है,
आंखों में छुपे वेहशीपन से डर लगता,
पहले डर भूत और जानवरों से लगता था,
अब ये इंसान को इंसान से है,
अब ये इंसान को इंसान से है,
डर का चेहरा बदल गया है अब मेरी दिल्ली में.
कोई राह में मुड़-मुड़ के
इस आस में देखा करता है कि,
किसी गाड़ी वाले का दिल पसीज जाए और उसे लिफ्ट मिल जाए,
पर यहां तो अब सब दहशत में हैं,
इस आस में देखा करता है कि,
किसी गाड़ी वाले का दिल पसीज जाए और उसे लिफ्ट मिल जाए,
पर यहां तो अब सब दहशत में हैं,
कौन किसकी मदद करे ?
किसकी मदद करे ?
इंसान को इंसान का डर,
उसकी हैवानियत का डर
तोड़ मरोड़ कर
नोच डालने का डर,
रेज़ा-रेज़ा कर देने का डर,
बात सिर्फ सामान भर लुटने की नहीं
यहां तो असमत दांव पर है,
कौन किसको लिफ्ट दे?
किसकी मदद करे ?
राह में मदद करने वाला कहीं खुद ही न रहज़न निकले,
सामान के साथ कहीं इज्ज़त भी न गंवानी पड़ जाए
सोच कर वह सिहर उठती है.
इंसान को इंसान का डर,
उसकी हैवानियत का डर
तोड़ मरोड़ कर
नोच डालने का डर,
रेज़ा-रेज़ा कर देने का डर,
बात सिर्फ सामान भर लुटने की नहीं
यहां तो असमत दांव पर है,
कौन किसको लिफ्ट दे?
किसकी मदद करे ?
राह में मदद करने वाला कहीं खुद ही न रहज़न निकले,
सामान के साथ कहीं इज्ज़त भी न गंवानी पड़ जाए
सोच कर वह सिहर उठती है.
इंसान ही नहीं अब तो अखबार से भी डर लगता है,
हजारों निर्भया की खबरों से,
टीवी पर गूंजती सैकड़ों दामिनी के चीत्कार से,
बलात्कार के आंकड़ों से,
डर का चेहरा बदल गया है अब मेरी दिल्ली में.
हजारों निर्भया की खबरों से,
टीवी पर गूंजती सैकड़ों दामिनी के चीत्कार से,
बलात्कार के आंकड़ों से,
डर का चेहरा बदल गया है अब मेरी दिल्ली में.
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