सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहां
दिल्ली
विश्वविद्यालय की छात्रा कोमल के पिता निर्यात के बड़े कारोबारी हैं। ऐसो-आराम में
पली बढ़ी कोमल के लिए बचपन से ही परिवार के साथ घूमने जाना जिंदगी का एक हिस्सा
रहा है। लेकिन एक बार जब वह कालेज के दोस्तों के साथ अचानक अल्मोड़ा की यात्रा पर
गई तो मानों उसकी जिंदगी ही बदल गई। कोमल कहती हैं, “यह अनुभव मेरे अब तक के अऩुभवों से निराला था। बचपन से ही
मैं परिवार के साथ साल में कम से कम दो बार घूमने जाती। महीनों पहले इस यात्रा की
तैयारी होती। कहां रुकना है? कैसे जाना है?
होटल, टैक्सी और रेलगाड़ी के इंतजाम के बारे में मम्मी-पापा को घंटों विचार विमर्श
करते। लेकिन एक दिन कालेज के मेरे दोस्त ने दोपहर को कालेज कैंटीन में अल्मोड़ा
जाने की बात की और शाम को हम अल्मोड़ा की बस में सवार हो गए।”
कोमल को बिना
पूर्व नियोजित और पूर्व तैयारी के की गई यह यात्रा रोमांचक लगी। कोमल कहती हैं,
“इस यात्रा में एक अलग तरह का उत्साह और
जिज्ञासा थी। रहस्य और रोमांच भी। इसके बाद तो मैं अब सारी यात्राएं ऐसे ही करती
हूं। रात में सोचा और सुबह निकल लेती हूं। न होटल का पता और न ठिकाने का। मुझे अब
अनजान यात्रा किसी रहस्यमय खजाने के खोजने
की अऩुभूति कराती है।” कोमल की यायावरी
युवाओं और खासकर के महानगीरय युवाओं की पंसद बनती जा रही है। महानगरों में ऐसे
युवाओं और लोगों की टोलियां मिल जाएंगी जो यायावरी के रोमांच का आनन्द ले रही है।
नई और अंजान जगहों पर जाना, नए लोगों से
मिलना, उनके जीवन का एक हिस्सा
जीना, यायावरी के एक नए ट्रेंड
के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। पेशे से फोटोग्राफर और घुमक्कड़ी के आदी रोशन
शर्मा कहते हैं, “यायावरी से ऐसे
अनेक अनुभव होते हैं जिससे मानव मन के रहस्यों से परदा उठता है। ये अनुभव चीजों को
देखने और समझने की शक्ति में कई गुना बढ़ोत्तरी कर देते हैं।”
वैसे कोमल की
यायावरी कोई नई बात नहीं है। भारत यायावरों का ही देश रहा है। ऋषि-मुनि तो यायावर
ही होते थे। आधुनिक समय में सन्यासियों से लेकर आध्यात्मिक यात्राएं करने वाले लोग
यायावरीपन को ही जीते हैं। यहां टेशाटन और तीर्थाटन की भी परंपरा रही है। जिसके
तहत लोग भौतिकता और सुविधाओं का मोह त्याग कर ज्ञान की तलाश और आध्यात्मिक रहस्य
की खोज करने निकल पड़ते हैं। साहित्यकार राकेश पांडेय कहते हैं, “यायावरी एक खास मनोस्थिति है। मन की ऐसी हालत
जब वह पक्षी के समान उड़ कर खुले आकाश में तन्मय होकर विचरण करना चाहता है। ऐसे
मनुष्य को दुनिया देखने और अनुभव करने की लालसा उसे यात्रा करने पर मजबूर कर देती
है।” वैसे तो अज्ञात से ज्ञात
की ओर यात्रा करना मनुष्य के स्वभाव में है। अगर ऐसा न होता तो आज दुनिया जैसी
दिखाई दे रही है वैसी न होती। आदि मानव तो यायावर की तरह ही घूमा करता था। जहां
भूख लगी, वहीं आसपास कोई शिकार
किया। उसे भूना और खा लिया। फिर आगे बढ़ गया। एक जगह ठहर कर रहने का विकास तो तब
हुआ जब मनुष्य ने खेती करना सीखा।
समय बदला और
लोगों में यात्रा करने का चलन भी। मौजूदा समय में जीवन की भागदौड़ और आपाधापी में
लोगों के पास लंबी और अनजान यात्राओं के लिए न तो समय है और न ही धैर्य। लिहाजा
पर्यटन का जमाना आ गया। आज मध्य वर्ग के तकरीबन सभी लोग घूमने जाते हैं। पर उनकी
यात्राओं का स्वरूप बदल चुका है। सब कुछ सुनिश्चित करके की जाने वाली यात्राओं और
यायावरी में बहुत फर्क है। दिल्ली के एक यायावर और पेशे से डाक्टर संदीप अरोड़ा
कहते हैं, “एक यायावर और पर्यटक में
बुनियादी अंदर होता है। एक पर्यटक कहीं भी जाने से पहले होटल आदि की बुंकिंग
करवाता है। रेलवे का आरक्षण करवाता है और सब कुछ तय कर गंतव्य तक पहुंचाता है।
स्मारकों के सामने फोटो खिचवाना और शांपिंग करके वापस चले आना उनके पर्यटन की
दिनचर्या का हिस्सा होता है। जबकि यायावर को पता ही नहीं होता कि अगले दिन वह इस
समय कहां होगा? अचानक कहीं के
लिए निकल जाना और कैसी भी स्थिति व व्यवस्था में सहज होकर यात्रा करना एक यायावर
का मूल गुण है।” डा. संदीप की
पत्नी ऋतु अरोड़ा भी पेशे से डाक्टर हैं। यह दंपत्ति समय मिलते ही यायावरी करने
निकल पड़ता है। डा संदीप कहते हैं, “जब भी हमें थोड़ा वक्त मिलता है हम कार लेकर निकल पड़ते हैं। हिमाचल और
उत्तराखंड का तो हमने चप्पा-चप्पा छान मारा है। कई बार ऐसा भी हुआ है कि हमें होटल
खाली नहीं मिला और हमने कार में ही रात गुजारी है।”
हितेश शंकर देश
की प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्रिका पाज्यजन्य के युवा संपादक हैं। वे अपने संपादक के
व्यस्त समय में भी यायावरी के लिए समय निकाल देते हैं। उनके पास यायावरी के
सैकड़ों किस्से हैं। एक पुरानी घटना का जिक्र करते हुए वे हंसते-हंसते लोटपोट हो
जाते हैं। हितेश शंकर बताते हैं कि एक दिन आफिस से लौटते हुए अचानक उनका देहरादून
जाने का मन हुआ। रास्ते में उनकी मुलाकात अपने बड़े भाई से हो जाती है। वे बड़े
भाई से देहरादून चलने के लिए पूंछते हैं। बड़े भाई भी फौरन तैयार। रात के आठ बज
चुके थे। खाना डाइनिंग टेबल पर लग चुका था। लेकिन खाना खाने की बजाए हितेश जी ने
उसे पैक कराया और देहरादून की बस पकड़ने के लिए पुरानी दिल्ली स्थित कश्मीरी गेट
बस अड्डे रवाना हो गए। हितेश शंकर कहते हैं, “बस अड्डे पर जाकर पता चला कि बस रात के 2 बजे जाएगी। लेकिन बस के ड्राइवर ने कहा कि अगर
सवारी जल्दी भर जाएगी तो बस पहले भी रवाना हो सकती है। फिर क्या था हम दोनो भाई
कंडक्टर बन कर चिल्ला-चिल्ला कर बस में सवारी भरने लगे। थोड़ी ही देर में हमारे
प्रयास से बस भर गई और हम देहरादून के लिए रवाना हो गए।” हितेश शंकर का देहरादून का अनुभव तो और भी रोचक रहा।
हितेश शंकर आगे
बताते हैं, “बस में बैठ कर
याद आया कि कुछ दिन पहले देहरादून के एक सज्जन से मुलाकात हुई थी। उन्होंने
देहरादून आने पर मुझे घर आने का न्योता भी दिया था। बटुआ टटोला तो उनका विजिटिंग
कार्ड मिल गया। सुबह सात बजे हम उनके घर पहुंच गए और उन्हें याद दिलाया कि आप ने
घर आने का निमंत्रण दिया था तो हम आ गए। वे भी हमें देखकर अवाक रह गए। उनके घर
पहले शायद ही हमारे जैसा कोई जबरदस्ती का मेहमान आया हो।” हितेश शंकर अपने यायावरी के स्वभाव के चलते पूरा देश घूम
चुके हैं। वे कहते हैं, “यात्राओं ने
मुझमें देश को जानने और परखने की एक समझ विकसित की। जिसका सकारात्मक असर मेरे लेखन
पर भी पड़ा है।” एक चीनी कहावत भी
है कि किसी किताब के 100 पन्ने पढ़ना और
एक कोस की यात्रा करना एक बराबर होता है। यायावर शायद इसी गुरुमंत्र पर जीते हैं
और वे मानते हैं कि जीवन का ज्ञान हासिल करने के लिए उसे प्रत्यक्ष अनुभव करने से
ज्यादा प्रभावी और क्या हो सकता है। यायावरी को इस्माइल मेरठी ने कुछ यूं पेश किया
है,
“सैर कर दुनिया की
गाफिल, जिंदगानी फिर कहां?
जिंदगी गर कुछ
रही, तो नौजवानी फिर कहां?”
इस लिए दोस्तों
ज़िन्दगी की फ़िक्र छोड़ कर निकल पढ़िए और देख डालिये सारी दुनियां।
ऐसे ही बने रहिये
मेरे साथ, भारत के कोने-कोने में
छुपे अनमोल ख़ज़ानों में से किसी और दास्तान के साथ हम फिर रूबरू होंगे।
तब तक खुश रहिये
और घूमते रहिये।
आपकी हमसफ़र आपकी
दोस्त
डा ० कायनात क़ाज़ी
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