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कुछ पंक्तियां इस ब्लॉग के बारे में :

प्रिय पाठक,
हिन्दी के प्रथम ट्रेवल फ़ोटोग्राफ़ी ब्लॉग पर आपका स्वागत है.….
ऐसा नहीं है कि हिन्दी में अच्छे ब्लॉग लिखने वालों की कमी है। हिन्दी में लोग एक से एक बेहतरीन ब्लॉग्स लिख रहे हैं। पर एक चीज़ की कमी अक्सर खलती है। जहां ब्लॉग पर अच्छा कन्टेन्ट है वहां एक अच्छी क्वालिटी की तस्वीर नहीं मिलती और जिन ब्लॉग्स पर अच्छी तस्वीरें होती हैं वहां कन्टेन्ट उतना अच्छा नहीं होता। मैं साहित्यकार के अलावा एक ट्रेवल राइटर और फोटोग्राफर हूँ। मैंने अपने इस ब्लॉग के ज़रिये इस दूरी को पाटने का प्रयास किया है। मेरा यह ब्लॉग हिन्दी का प्रथम ट्रेवल फ़ोटोग्राफ़ी ब्लॉग है। जहाँ आपको मिलेगी भारत के कुछ अनछुए पहलुओं, अनदेखे स्थानों की सविस्तार जानकारी और उन स्थानों से जुड़ी कुछ बेहतरीन तस्वीरें।
उम्मीद है, आप को मेरा यह प्रयास पसंद आएगा। आपकी प्रतिक्रियाओं की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।
आपके कमेन्ट मुझे इस ब्लॉग को और बेहतर बनाने की प्रेरणा देंगे।

मंगल मृदुल कामनाओं सहित
आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी

Saturday, 31 December 2016

एक दिन डल लेक पर तैरते हाउस बोट पर....

एक दिन डल लेक पर तैरते हाउस बोट पर....






दोस्तों कश्मीर की वादियों में दिन गुज़ारना शायद सब को पसंद आता होगा और इस यात्रा का एक और बड़ा आकर्षण है वह है हाउस बोट में ठहरना। अगर हिंदी सिनेमा की सत्तर के दशक की फिल्मों की बात करें तो उन फिल्मो में अक्सर कश्मीर की वादियों की शूटिंग देखने को मिलती थी और जिसमे हाउस बोट मुख्य आकर्षण होती थी। फिर अस्सी का दशक आया और कश्मीर की वादियों में खूबसूरत नज़रों की जगह हिंसा ने ले ली और सैलानियों ने इस हसीं धरती की और आने का सपना कहीं बिसरा दिया। फिर भी एक कसक दिल के किसी कोने में हमेशा रहती थी की एक बार कश्मीर जाया जाए। चलो अच्छी ख़बर यह है कि इन अलगाववादी नेताओं की समझ में भी आ गया है कि आए दिन होने वाले बंद और हिंसा से यहाँ के लोगों का रोज़गार ठप्प हो रहा है.इसलिए इन लोगों ने भी अब यह पहल की है कि वादी में टूरिज्म को बढ़ावा दिया जाए।  सो मैंने सोचा की मौक़ा अच्छा है क्यों न इसी बहाने कश्मीर की वादियों में कुछ वक़्त गुज़ारा जाए। कश्मीर के मेरे प्रवास का सफरनामा आप यहाँ अलग से पढ़ सकते हैं।

चश्मे, चिनार, गार्डेन्स और डल लेक आठ घंटों मे…


फ़िलहाल मैं आपको लिए चलती हूँ 1 दिन हाउस बोट में आराम करने को। मैंने अपने एक सप्ताह के प्रवास में हाउस बोट के लिए आखरी के दिन रखे हैं। क्योंकि हाउस बोट में रह कर मैं सिर्फ आराम करना चाहती हूँ। तो पहले कश्मीर की वादियों में घूम कर थोड़ा थक जॉन फिर आराम किया जाए।


श्रीनगर में हाउस बोट दो जगह देखी जाती हैं एक डल लेक पर और एक नागिन लेक पर। बुलावार्ड रोड डल झील के सहारे सहारे चलता है। डल झील का विस्तार 18 किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। इस झील के तीन तरफ पहाड़ हैं। ऐसा माना जाता है कि अगर कश्मीर एक ताज है तो डल झील उस ताज में जड़ा नगीना है। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि कोई कश्मीर देखने आए और डल झील देखे बिना वापस चला जाए। डल झील शुरू होती है डल गेट से। यहां पर झील थोड़ी पतली है और उसके किनारों पर कई सारे होटल बने हुए हैं। बुलावार्ड रोड पर क़तार से होटल बने हुए हैं और साथ ही एक भरा-पूरा मार्केट भी है। कश्मीरी हेन्डीक्राफ्ट से सजी हुई दुकानें बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करती हैं। डल गेट से शुरू होकर डल झील आगे जाकर एक विशाल जलराशि मे बदल जाती है। डल गेट से ही एक तरफ बुलावार्ड रोड और दूसरी तरफ क़तार मे फेली हाउस बोट पर्यटकों का स्वागत करती हैं। कश्मीर जाने से पहले ज़रूरी नहीं की आप हाउस बोट पहले से बुक करें।


आप जैसे ही बुलावार्ड रोड पर बने घाटो पर पहुंचेंगे कितने ही सारे हाउस बोट के मालिक आप को घेर लेंगे। अब आपके पास यह चॉइस है की आप पहले जा कर एक नज़र हाउस बोट देख लें फिर बात करें। मेरे राय है की आप सौदा करने में जल्दबाज़ी न करें और दो चार हाउस बोट देखने के बाद मोल भाव करने के बाद ही फैसला करें। यह हाउस बोट वाले अपनी शिकारा में बिठा कर आपको हाउस बोट दिखाने ले जाएंगे। अगर आप चहलपहल पसंद करते हैं तो डल  लेक की हाउस बोट में ठहरें और अगर ख़ामोशी और सुकून की तलाश में हैं तो नागिन लेक जाएं। हमने दो चार हाउस बोट देखने के बाद एक हाउस बोट पसंद की और अगला एक दिन एक रात वहां गुज़ारा।


आप इसे पानी पर तैरता घर मान लीजिये। यह हाउस बोट लकड़ी की बनी होती हैं जिन पर बारीक़ नक्कारशी का काम किया जाता है। इनमें बैडरूम, ड्राइंग रूम और डाइनिंग रूम की व्यवस्था होती है। अंदर से यह बहुत कोज़ी होती हैं। कश्मीरी क़ालीन से सजी हुई। इन हाउस बोट के पीछे ही इनके मालिकों का घर होता है इसलिए आप अगर सोलो भी ट्रेवल कर रही हैं तो सुरक्षा की कोई चिंता नहीं।


कहीं कहीं दो हॉउस बोट मिला कर बीच के हिस्से को ओपन में बैठने के लिए छोटे से रेस्टोरेंट का रूप दे दिया जाता है। जहाँ बैठ कर आप शाम की चाय का आनंद ले सकें।

यह हाउसबोट केरल के बैक वाटर्स में पाई जाने वाली हाउस बोट से अलग है। वो हाउस बोट आकर में इनसे काफी बड़ी और मज़बूत होती हैं। शाम को जब झील पर रात उतरने लगती है तो सारी हाउस बोट पीली रोशनियों में नहा जाती हैं। इन रोशनियों की परछाईं डल लेक के पानी को और भी खूबसूरत बना देती है।


सुबह सुबह फूल बेचने वाला हर हाउस  बोट पर आकर फूल देकर जाता है। फूलों से सजी उसकी शिकारा डल  लेक पर तैरती बहुत सुदंर  लगती है।

यह आकर्षण एक रात के लिए काफी है, क्योंकि इसके कुछ ड्रा बैक भी हैं। यह हाउस बोट डल लेक में एक जगह खड़ी रहती हैं और इनसे निकलने वाली सीवेज का कोई पुख़्ता बंदोबस्त नहीं है इसलिए डल के पानी से बदबू आती है।  तो दोस्तों कैसा लगा यह अनुभव।ज़रूर बताइयेगा।


फिर मिलेंगे दोस्तों, भारत दर्शन में किसी नए शहर की यात्रा पर, तब तक खुश रहिये, और घूमते रहिये,

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी

Tuesday, 20 December 2016

गुजरात से लाइव: कहानी नमक की....

गुजरात से लाइव: कहानी नमक की....




हम जैसे-जैसे कच्छ की और बढ़ रहे हैं हवा में नमक की मौजूदगी महसूस होने लगी है। हम समुन्दर से बहुत दूर नहीं हैं। हमारे उलटे हाथ की तरफ कुछ मीलों के फासले पर समुद्री रेखा शुरू होती है। सड़क के आस पास नमक के मैदान दिखने लगे हैं जहाँ बड़ी-बड़ी क्यारियां बना कर उनमे पानी को सुखाया जा रहा है। ये बड़ी प्राचीन पद्धति है। भारत को ऐसे ही नहीं दुनिया का तीसरे नंबर का नमक के उत्पादन में अग्रणी माना जाता। यहाँ की भूमि में नमक की मात्रा की अधिकता होती है इसीलिए कुछ और पैदा नहीं हो सकता। यहाँ के किसानों ने इसका तोड़ निकल और नमक की ही खेती करनी शुरू कर दी। लिटिल रण ऑफ़ कच्छ में एक जगह है जिसे खारा घोड़ा कहा जाता है। यह गुजरात के  सुरेन्द्रनगर ज़िले में आता है।


यहाँ अंग्रेजों ने नमक का उत्पादन शुरू किया जिसे बाद में हिंदुस्तान साल्ट लिमिटेड ने आगे बढ़ाया। यहाँ 23,000 हज़ार एकड़ में नमक का उत्पादन किया जाता है। जबकि इस छोटे से गांव की जनसंख्या केवल 10 हज़ार है। पूरा का पूरा गांव नमक के काम में लगा हुआ है। इस गांव में ब्रिटिश साम्राज्य के कुछ अंश अभी भी दिखाई देते हैं। जैसे भारत का पहला शॉपिंग मॉल यहीं बना। सन् 1905 में सर बुल्कले ने इस मॉल को बनवाया। आज भी यहाँ 8-10 दुकाने बाकी हैं जो कि गांववालों की ज़रूरत की चीजों की पूर्ति एक ही छत के नीचे करती हैं।


मुझे गांव कुछ ख़ाली-ख़ाली सा लगा मालूम किया तो पता चला की सभी लोग पास ही बनी साल्ट फैक्ट्री में काम करने गए हुए हैं। हम ने नमक की फैक्ट्री का रुख किया। हम जैसे जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे हमें नमक के ऊँचे ऊँचे ढ़ेर दिखने लगे थे। यह ढ़ेर सफ़ेद और भूरे रंग के थे।




खेतों में पानी को जमा करके उस पानी को धुप से प्राकृतिक तरीके से सुखाने जाता है। जब पानी वाष्प बन कर उड़ जाता है तो ऊपर ऊपर नमक की एक मोटी परत बन जाती है जिसे सावधानी से उठा लिया जाता है। खेतों से जमा किया यह नमक यहाँ फैक्ट्री में लाकर ऊँचे ऊँचे ढ़ेरों में जमा किया जाता है जिसे कुछ दिन के लिए ऐसे ही छोड़ दिया जाता है।

बाद में जेसीबी की मदद से यह नमक, जिसमे की अभी बड़ी मात्रा में मिट्टी के अंश मौजूद हैं को फैक्ट्री के अंदर प्रोसेसिंग के लिए लेकर जाया जाता है। जहाँ मशीनों से नमक की धुलाई होती है और उस में से अशुद्धियों को निकाला जाता है।



नमक साफ़ होने के बाद यह अंदर एक बड़े हॉल में पैकिंग के लिए पहुँचता है जहाँ पर बहुत सारे लोग बैठ कर मेनुअल तरीके से इसकी पैकिंग करते हैं। यहाँ पुरा का पूरा परिवार पैकिंग के काम में लगा होता है।

तो क्यों दोस्तों है न मज़ेदार नमक की कहानी।



फिर मिलेंगे दोस्तों, भारत दर्शन में किसी नए शहर की यात्रा पर, तब तक खुश रहिये, और घूमते रहिये,

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी

Thursday, 15 December 2016

रंण उत्सव-2016:रंण उत्सव तो एक बहाना है, गुजरात मे बहुत कुछ दिखाना है....

रंण उत्सव-2016

रंण उत्सव तो सिर्फ़ एक बहाना है,  गुजरात मे बहुत कुछ दिखाना है....


यह लाइन किसी ने सही कही है, क्यूंकि रंण उत्सव के बहाने ही मैने बहुत कुछ ऐसा देख डाला जिसे देखने शायद अलग से मैं कभी आती ही नही गुजरात। इस बार मौक़ा था रंण उत्सव मे जाने का। चार दिन की मेरी यह तूफ़ानी यात्रा अपने मे समेटे थी बहुत कुछ अनोखा। अहमदाबाद से सुरेन्द्रनगर, सुरेन्द्रनगर से गाँधी धाम और गाँधी धाम से धोर्ड़ो गाँव जहाँ कि रंण उत्सव मनाया जाता है।  मैं पहले ही बता दूं कि इनमे से कोई भी जगह आस पास नही है लेकिन गुजरात के हाई वे बहुत अच्छे हैं कि आप बिना किसी तकलीफ़ के लंबी रोड यात्रा कर सकते हैं।



चलिए तो फिर यात्रा शुरू करते हैं। मैं अहमदाबाद पहुँच कर निकल पड़ी सुरेन्द्रनगर में वाइल्ड एस सेंचुरी  देखने।  क्या है खास इस सेंचुरी मे? यही सवाल मेरे मन मे भी उठा था।  पाँच हज़ार वर्ग किलोमीटर  मे फैला यह वेटलैंड किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।  इसे लिट्ल रंण ऑफ कच्छ कहते हैं।  यह जगह इसलिए मशहूर है कि पूरी दुनिया मे सिर्फ़ यहीं वाइल्ड एस पाए जाते आईं।  वाइल्ड एस यानि कि जंगली गधे। कहते हैं की यहाँ लगभग 3000 वाइल्ड एस हैं। इसके अलावा यहाँ कई अन्य जानवर भी पाए जाते हैं।




मुझे इस जगह की सबसे अच्छी बात यह लगी कि यहां तक पहुँचना बहुत आसान है। मीलों तक फैला वेटलैंड जिसे बड़ी आसानी से जिप्सी मे बैठ कर देखा जा सकता है। सबसे अच्छी बात तो यह है कि यह सेंचुरी बर्ड वाचिंग के लिए बहुत अच्छी है।  मेरी पिछली गुजरात की यात्रा में हम फ्लैमिंगो ढूंढते हुए मांडवी मे कितनी दूर तक समुद्र तट पर चले थे और फिर भी हमे फ्लैमिंगो नही मिले थे लेकिन यहाँ इस सेंचुरी मे जगह जगह वॉटर बॉडी बनी हुई हैं जहां फ्लैमिंगो के झुंड के झुंड देखने को मिल जाते हैं वो भी बड़ी आसानी से। बस ज़रूरत है तो  एक अदद ज़ूम लेंस की, और वो भी कम से कम 400 या 600 mm का ज़ूम लेंस ।




वाइल्ड एस  थोड़े शर्मीले होते हैं अपने नज़दीक गाड़ियों को देख कर झट से झाड़ियों मे घुस जाते हैं। हमे घूमते-घूमते शाम हो गई। सामने सूरज अस्त की ओर चल पड़ा था। यहाँ की दलदली मिट्टी नमक की अधिकता के कारंण बंजर है। लेकिन देखने मे सुंदर लगती है। दूर तक फैला मैदान और सुंदर सनसेट वहीं रुकने को मजबूर कर रहा था। यह दिसंबर का महीना है लेकिन यहाँ ठंड नही है। हवा अच्छी लग रही है। कुछ देर ठहर के सनसेट का मज़ा लिया और फिर चल पड़े अपने डेरे की ओर।

यहीं पास ही एक रिज़ॉर्ट मे ठहरने की ववस्था की गई है। पहला दिन ख़त्म होने को आया। आज चौदहवीं की तो नही लेकिन 12ह्वीं की रात है इसलिए चाँद आसमान मे कुछ ज़्यादा ही चमक रहा है। अभी इसे और चमकना होगा। चाँदनी रात मे रंण के सफेद रेगिस्तान को देखने लोग खास तौर पर पूर्णिमा के दिन आते हैं। यही वहाँ का मुख्य आकर्षण है।

दूसरा दिन थोड़ा लंबा होने वाला था हमे सुरेन्द्र नगर से गाँधी धाम की यात्रा तय करनी है। यह यात्रा कुल 206 किलो मीटर की होने वाली है। रास्ते मे हम कई गाँव देखेंगे। ऐसे गाँव जिनमे छुपा है इतिहास। कच्छ की प्राचीन हस्त कला और वैभव का इतिहास। यहीं पास ही एक गाँव है जिसका नाम है खारा घोड़ा। कहते हैं इस गाँव मे 111 साल पुराना शॉपिंग माल है। जिसे अँग्रेज़ों ने 1905 मे बनवाया था। आज यहाँ कुछ दुकाने मौजूद हैं जोकि गाँव वालों की ज़रूरत का सामान एक ही छत के नीचे उपलब्ध करवाती है। इस गाँव से थोड़ा आगे बढ़ते ही हमे नमक की खेती होते दिखने लगती है। यह पूरा प्रोसेस देखना भी एक अनुभव है। नमक कैसे बनता है इसकी कहानी तफ्सील से जानने के लिए यहाँ क्लिक करें:






अभी तक मुझे गुजरात मे आए हुए 2 दिन हो चुके हैं लेकिन मैने भूंगे नही देखे। भूंगे यानी के मिट्टी के बने गोल घर जोकि कच्छ के ग्रामीण जीवन की पहचान है। मेरी इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य था कि मैं कच्छ मे रहने वाले जनजातीय जीवन को देख पाऊं।  इसीलिए मैने इस बार गाँवों की यात्रा का मन बनाया। मेरा अगला पड़ाव होगा ऐसे ही एक गांव। जहाँ मैं कच्छी कला से जुड़े समुदायों से मिल सकूँ। हम भुज के बहुत नज़दीक हैं और भुज के नज़दीक ही एक गाँव पड़ता है जिसका नाम है सुमरासार शैख़। इस गाँव की एक ख़ासियत है। यहाँ कच्छ मे किए जाने वाली कढ़ाई के काम की सबसे बेहतरीन क़िस्म यहीं देखने को मिलती है। इस गाँव  मे कई NGO और संगठन यहाँ की कला के संरक्षण के लिए काम करते हैं। मैं धूल उड़ाती कच्ची सड़कों को पार करते हुए ऐसी ही एक जगह पहुँच गई हूँ। यह कला रक्षा केंद्र है जहाँ सूफ कला के संरक्षण के लिए कार्य किया जाता है।






यहाँ मिट्टी के गोल घर मुझे आकर्षित करते हैं जिनके बीचों बीच मे एक छोटा-सा आँगन है जहाँ काले लिबास मे कुछ महिलाएँ कढ़ाई का काम कर रही हैं। यह महिलाएँ मारू मेघवाल और रबाड़ी जनजाति से संबंध रखती है और सिंगल धागे से कपड़े पर त्रिकोण आकर की ज्योमित्री डिज़ाइन की कढ़ाई करती हैं। यह बेहद नफीस और बारीक कढ़ाई है। जिसे बड़ी महारत से किया जाता है। कहते हैं इस कला को करने वाले की ऑंखें जल्द ही साथ छोड़ जाती हैं। यह कलाकार कपडे पर उलटी तरफ ताने बानों को उठा कर कढ़ाई करती हैं और सीधी तरफ डिज़ाइन बनती जाती है। इस जनजाति का संबंध पाकिस्तान से है। और यह विस्थापित होकर यहाँ कच्छ मे आ बसे। इनके काम मे महीनो का समय लगता है। लेकिन इनके द्वारा किए गए कढ़ाई के काम की फैशन डिज़ाइनरों मे बड़ी माँग है।


मेरी इस यात्रा में ऐसे ही एक और गांव में मैंने बड़े ही खूबसूरत गोल घर देखे। इस गांव का नाम था - भरिन्डयारी,  कच्छ मे कई प्रकार की कढ़ाई के नमूने देखने को मिलते हैं।  कहते हैं यह कला पाकिस्तान के सिंध प्रांत से कच्छ मे आई और इस सफर में राजस्थानी कला और यहाँ की स्थानीय कला ने इसे और समृद्ध बनाया।  पहले महिलाएँ अपनी बेटियों के शादी के जोड़े खुद तैयार करती थीं। आज यहाँ भाँति-भाँति की कढ़ाइयाँ देखने को मिलती हैं। जैसे खारेक, पाको, राबरी, गारसिया जात और मुतवा।



मुझे सुकून है कि मैं अपनी इस यात्रा मे असली गुजरात को देख पा रही हूँ।  मेरा अगला पड़ाव है होड़का गाँव जोकि धोर्ड़ो के रास्ते मे पड़ता है। इस गाँव की ख़ासियत है यहाँ के गोल घर। मिट्टी की दीवारें और अंदर से बड़े खूबसूरत होते हैं यह घर। आप भी देखिए। एक बार यहाँ आकर यहाँ से वापस जाने का मन नही करेगा। यह लोग अपने घरों को बहुत खूबसूरती से सजाते हैं। घर की दीवारों पर, छत को सब जगह कलाकारी देखने को मिलती है।



क्यूंकि यहाँ की मिट्टी बंजर है इसीलिए शायद यहाँ के लोगों के जीवन मे रंगों का बड़ा महत्व है। इनके कपड़े बड़े कलरफुल होते हैं। रंगीन धागे, शीशा, रंगीन मोती और ऊन के बने यह वस्त्र बहुत आकर्षक हैं। भूंगों मे दिन गुज़ारने के बाद मेरी यात्रा का अंतिम पड़ाव भी आ पहुँचा है। और यह है धोर्ड़ो गाँव जोकि भुज से 80 किलोमीटेर दूर है। यहाँ से सफेद रंण शुरू होता है। यहीं पर हर साल रंण उत्सव मनाया जाता है। देखा जाए तो यहाँ कुछ भी नही है सिवाए मीलों तक फैले सफेद रंण के लेकिन यहाँ रंण उत्सव मानने के लिए पूरा का पूरा टेंट सिटी बसाया जाता है। जोकि किसी स्वप्न लोक जैसा है। ठहरने के लिए वर्ल्ड क्लास टेंट्स लगाए गए हैं और यहाँ शुद्ध गुजराती खाने का प्रबंध किया गया है।



हम दोपहर होते होते धोर्ड़ो पहुँचे। बहुत भूक लगी थी तो सीधे डाइनिंग हॉल मे पहुँच गए। यहाँ का इंतज़ाम बहुत अच्छा है।  सब कुछ पर्फेक्ट। चेक इन से लेकर खाने पीने और रंण मे जाने की व्यवस्था तक सब कुछ पर्फेक्ट।

शाम को रंण उत्सव का शुभारम्भ माननीय मुख्यमंत्री श्री विजय भाई रुपानी के हाथों एक रंगारंग कार्यक्रम के साथ हुआ। हम सब ऊंट गाड़ी पर बैठ कर रंण मे पहुँचे। दूर तक फैला रंण बहुत सुंदर दिखता है। रात मे जब पूर्णिमा का चाँद रोशनी से सारे रंण को जगमगा देगा तब सैलानी इस अद्भुत नज़ारे को देखने रंण मे आएँगे। जिसकी व्यवस्था पहले से ही की गई है।



धवल चाँदनी मे रंण देखना एक अनोखा अनुभव है। मैं कहूँगी कि यह एक ऐसा अनुभव है जिसे सिर्फ़ महसूस ही किया जा सकता है। इसलिए कैमरे मे क़ैद करने के चक्कर मे न पड़ें। बस रण  में जाकर इसका लुत्फ़ उठाएं। ठंडी हवाओं के बीच रंण मे दूर तक सफेद चाँदनी को निहारना बहुत खूबसूरत अनुभव है।



यहाँ टेंट सिटी के पास ही क्राफ्ट बाज़ार है जहाँ कच्छ के हैंडी क्रॅफ्ट आइटम खरीदे जा सकते है। मेरे इस चार दिन के प्रवास मे मैने कच्छी एंबरोएडरी की सैंकड़ों साल पुरानी विरासत को क़रीब से देखा। साथ ही भिन्न-भिन्न प्रकार की जनजातियों के लोगों के जीवन को क़रीब से देखा।

मेरी इस यात्रा का एक और हाईलाइट है और वो है यहाँ का खाना। कहते हैं गुजराती खाना मीठा होता है। पर यह पूरा सच नही है।  यहाँ मीठे के साथ कई अन्य स्वाद भी है, आप ट्राई तो कीजिए।  मैने अपनी पूरी यात्रा मे गुजरात के अलग अलग स्वादों को चखा।  खमंड, धोखला, फाफड, थेपला, गुजराती थाली और भी बहुत कुछ।



गुजरात घूमने कब जाएं?

वैसे तो वर्ष में कभी भी गुजरात घूमने जाया जा सकता है लेकिन रण उत्सव हर वर्ष दिसंबर माह में होता है जोकि फरवरी तक चलता है। अगर आप रंण उत्सव देखने जा रहे हैं तो उद्घाटन के आसपास ही जाएं। फरवरी तक मेले का उत्साह थोड़ा ठंडा हो जाता है।

कैसे पहुंचें?

रंण उत्सव धोरडो नमक गांव में किया जाता है जिसके सबसे नज़दीक भुज(71 किलोमीटर) है। रण उत्सव के लिए आप बाई एयर या ट्रैन से भी जा सकते हैं। नज़दीकी एयरपोर्ट अहमदाबाद है। भुज एयरपोर्ट सबसे नज़दीक है लेकिन फ्लाइट्स बहुत ज़्यादा नहीं हैं, जबकि अहमदाबाद एयरपोर्ट देश के सभी बड़े शहरों से जुड़ा हुआ है। अहमदाबाद से धोरडो की दूरी 370 किलोमीटर है। सड़कें अच्छी हैं लेकिन रास्ता थोड़ा लंबा है।

फिर मिलेंगे दोस्तों, भारत दर्शन में किसी नए शहर की यात्रा पर, तब तक खुश रहिये, और घूमते रहिये,

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी

Thursday, 8 December 2016

कुम्भलगढ़ फेस्टिवल की छटा है निराली

कुम्भलगढ़ फेस्टिवल की छटा है निराली



Gair Dance at Kumbhalgarh Festival
सच कहूँ तो पहले कभी सुना नही था मैंने यह नाम। कुम्भलगढ़ को जानती ज़रूर थी लेकिन उसके विशालतम दुर्ग के लिए न कि फेस्टिवल के लिए, और इतना जानती थी कि ग्रेट वाल ऑफ़ इंडिया भी यहीं है।  राजस्थान टूरिज़्म की तरफ से जब न्योता आया तो जिज्ञासा हुई कि कैसा होगा यह फेस्टिवल।  हमेशा की तरह गूगल पर जाकर जानकारी जुटाने की कोशिश की। पर बहुत कुछ हाथ नही लगा। यू टयूब पर एक वीडियो देखकर तो सोच में पड़ गई की जाऊं कि न जाऊं। सच कहूं तो वीडियो देखकर कुछ ख़ास नही लगा था। ट्रैवेलर का पहला उसूल याद किया कि जब तक मैं अपनी आँखों से न देख लूँ तब तक भरोसा नही करूंगी। इसलिया फ़ैसला किया कि खुद जाकर देखूंगी।  वसे भी कुम्भलगढ़ जाना मेरी विशलिस्ट मे पहले से था। तो क्यों न फेस्टिवल के वक़्त जाया जाए।


Dafli dance at Kumbhalgarh Festival
कुम्भलगढ़ जाना जाता है अपनी सबसे लम्बी दीवार के लिए। पूरी दुनिया मे चीन की ग्रेट वॉल ऑफ चायना के बाद यह दीवार अपनी लंबाई के लिए मशहूर है। और यह क़िला इसलिए मशहूर है कि यह अजय है, अभेद है। इस दुर्ग को आज तक कोई भी जीत नही पाया है। इसके बनाना वालों ने इसे बड़ी होशयारी से बनाया है। सामरिक द्रष्टि से यह दुर्ग बहुत ही महत्वपूर्ण है।  इस दुर्ग के बारे मे बहुत कुछ है बताने को इसलिए दुर्ग की दास्तान अगली पोस्ट मे बताऊंगी। फिलहाल हम बात करेंगे कुम्भलगढ़ फेस्टिवल की।

उदयपुर तक मैं फ्लाइट से पहुँची और वहाँ से आगे रोड ट्रिप। उदयपुर से निकलते ही खूबसूरत पहाड़ी रास्ता शुरू हो जाता है। हमारे दोनो ओर अरावली पर्वत की श्रंखला चलती है। उदयपुर से जुड़ा अरावली का यह हिस्सा बहुत खूबसूरत है। अरावली पर्वत श्रंखला उत्तर मे पड़ने वाली एक लंबी श्रंखला है जोकि दिल्ली मे रायसीना हिल्स से शुरू होकर हरयाणा, राजस्थान और गुजरात तक जाती है। इन हरे भरे पहाड़ों को देख कर कोई नही कहेगा कि हम राजस्थान मे हैं।



 A dancer performing Chakri dance at Kumbhalgarh Festival
उदयपुर से लगभग तीन घंटों मे हम कुम्भलगढ़ पहुँचते हैं। कुम्भलगढ़ पहाड़ों के बीच बसा एक ऐसा स्थान है कि जहाँ एक इतना बड़ा दुर्ग भी हो सकता है इसका अंदाज़ा भी नही लगाया जा सकता। राणा कुम्भा ने इस दुर्ग का निर्माण करवाया। राणा कुम्भा के नाम पर ही इस दुर्ग का नाम पड़ा। महाराणा प्रताप की जन्मस्थली भी यही अभेद दुर्ग है। इस दुर्ग ने कई राजाओं का समय देखा।

कुम्भलगढ़ पहुंचते पहुँचते शाम घिर आई थी। शाम को कुम्भलगढ़ फेस्टिवल के अंदर सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। यह कार्यक्रम कुम्भलगढ़ फ़ोर्ट के प्रांगण मे ही होता है। हमने फ्रेश हो कर फ़ोर्ट का रुख़ किया। राणा कुम्भा कला और संगीत के प्रेमी थे, उन्ही की याद मे यहाँ कुम्भलगढ़ फेस्टिवल मनाया जाता है। राजस्थान के कोने कोने से का कलाकारों को बुलाया जाता है। कुम्भलगढ़ फ़ोर्ट ऊंची पहाड़ी पर बना है। जब तक हम फ़ोर्ट के बिल्कुल क़रीब नही पहुँच गए फ़ोर्ट दिखाई ही नही दिया। और पास आते ही पीली रोशनी मे जगमगाते फ़ोर्ट की लंबी दीवार नज़र आने लगी। सोने सी पीली चमक मे दूर तक नज़र आती दीवार ने मेरे क़दम वहीं रोक लिए। यह लंबी दिवार ही कुम्भलगढ़ की पहचान है।



 Kumbhalgarh Fort-The grate wall of India-World Heritage site by UNESCO
विशाल दुर्ग अपनी पूरी शान के साथ खड़ा हुआ था। और उस दुर्ग के चारों ओर लागभग 36 किलोमीटेर की लंबी दीवार खड़ी थी।  मैने कुछ तस्वीरें क्लिक की और दुर्ग के सदर दरवाज़े से प्रवेश किया।

अंदर वाक़ई उत्सव का माहौल था। फूलों से सजावट की गई थी। यज्ञशाला के सामने प्रांगण मे लोक कलाकार अपनी कलाओं का प्रदर्शन कर रहे थे।  काले कपड़ों मे नृत्य करने वाली काल्बेलिया डान्सर्स, रंग बिरंगी पोशाक मे चकरी नृत्य करने वाली महिलाएँ। भील जनजाति द्वारा प्रस्तुत नृत्य, झालोर से आए बड़ी-बड़ी ढ़पली बजाने वाला समूह। घूमर नृत्य, घेरदार लाल पोशाक और लाठी के साथ गैर नृत्य करते भील जनजाति के लोग।


अलग अलग रूपों मे सजे बहुरुपीए। कोई रावन बना हुआ था तो कोई विष्णु का अवतार।  रावन के अट्टहास को देख बच्चे भी एक बार को सहेम गए। दस सिरों वाले लंकापति रावन का रोब देखने वाला था।

राजस्थान के दूर दराज़ के क्षेत्रों शेत्रों से आए आदिवासियों के नृत्य मे प्रकृति प्रेम दूर से ही झलकता है।  शरीर पर पैंट किए, सिर पर मोरपंखी मुकुट पहने यह आदिवासी विभिन्न मुद्राओं से जंगल और वहाँ के जीवन की मनोरम छटा बिखेर रहे थे। कच्ची घोड़ी यहाँ का प्रसिद्ध नृत्य है जोकि शादियों के समय में किया जाता है। इस नृत्य का संबंध शेखावटी क्षेत्र से है।

इन सब को देखने आस पास के गाँवों से महिलाएँ बच्चे बड़ी संख्या मे जुटते हैं। राजस्थान टूरिज़्म इस अवसर पर अपने प्रदेश की लोक संस्कृति से रूबरू करवाने मे कोई कसर बाक़ी नही रखता। यहाँ पगड़ी बाँधने की प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है।

रंग बिरंगे साफे सब प्रतिभागियों को दिए जाते हैं।  प्रतियोगिता से पहले उन्हें डेमो भी दिया जाता है, कि किस प्रकार साफा बंधा जाता है। उसके बाद पुरुष और महिलाओं मे साफा बाँधने की प्रतियोगिता का आयोजन होता है।राजस्थानी पगड़ी कैसे बांधी  जाती है इसके लिए विडियो आपके लिए।  इस प्रतियोगिता मे एक विजेता पुरुषों मे से और एक विजेता महिलाओं मे से चुना जाता है।

नेपथ्य मे विशाल दुर्ग और नीला खुला आसमान इस रंगारंग उत्सव का साक्षी बनता है। और इस तरह तीन दिनो तक राजस्थान की कला और लोक संस्कृति की झलक नज़दीक से देखने को मिलती है।  दिन भर चलने वाले यह कार्यक्रम शाम होने तक ख़त्म हो जाते हैं और लोग शाम को होने वाले प्रोग्रामों की तैयारी मे लग जाते हैं।


शाम को ठंडी ठंडी हवाओं के बीच यज्ञशाला के पिछले हिस्से मे एक ऊंचे स्टेज पर संस्कृति कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। पहले दिन प्रसिद्ध लोक गायक चुग्गे ख़ान साहब ने राजस्थानी मिट्टी की खुश्बू से सराबोर लोक गीतों से मन मोह लिया। उन्हें सुनने सैलानी तो मौजूद थे ही साथ ही आस पास के गाँवों से आई पारंपरिक पोशाकों मे सजी महिलाएँ भी बड़ी संख्या मे उपस्थित थी,और घूँघट के पीछे होने के बावजूद ये महिलाएँ न सिर्फ़ संगीत का आनंद ले रही थीं बल्कि चुग्गे ख़ान साहब से फरमाइशी गीत भी सुनने का आग्रह कर रही थीं। यह मंज़र देखने लायक़ था। चुग्गे ख़ान साहिब का संबंध राजस्थान के लोक गायक समुदाय माँगनियार से है। इनका सूफ़ी कलाम दिल को छू लेने वाला होता है। धवल चाँदनी रात मे खुले आकाश तले चुग्गे ख़ान साहब के गीतों को सुनते हुए शाम कैसे बीत गई पता ही नही चला।


 dance performance at Kumbhalgarh Festival
 अगले तीन दिनो तक यह सिलसिला चलता रहा। दिन के समय लोक नृत्य और रात के समय लोक गीतों और नृत्य नाटिका का आयोजन। अरावली पर्वत श्रंखला के बीच स्थित कुम्भलगढ़ के क़िले मे यह आयोजन किसी नगीने जैसा है। इसके बारे मे बहुत ज़्यादा लोग नही जानते लेकिन जो इसे अनुभव कर लेते हैं वो इसे भूल नही पाते। राजस्थान टूरिज़्म  इस कार्यक्रम का आयोजन करता है। वैसे तो मैंने बहुत सारे फेस्टिवल और महोत्सव देखे हैं लेकिन मुझे कुम्भलगढ़ फेस्टिवल इसलिए बहुत पसंद आया क्योंकि यह लोगों के द्वारा और लोगों के लिए आयोजित किया जाता है। यहाँ आम आदमी ही ख़ास है।

वो भीड़ का हिस्सा नहीं बल्कि सम्मानित अतिथि है। इसीलिए यहाँ गांवों से महिलाऐं, बच्चे बड़ी तादाद में आते हैं। शुक्र है कोई तो जगह ऐसी है जहाँ चीजें अपना उद्देश्य नहीं खो रही हैं। यहाँ हर रोज़ शाम को सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। नेपथ्य में पीली रोशनियों में जगमगाता कुम्भलगढ़ का दुर्ग और ऊँचे स्टेज पर परफॉर्म करते कलाकार, समां बांध लेते हैं।

 Contemporary dance performance at Kumbhalgarh Festival

इन कार्यक्रमों को देखने के बाद मैं यह दावे के साथ कह सकती हूँ कि आप जोधपुर में होने वाले राजस्थान इंटरनेशनल फोक फेस्टिवल RIFF को भूल जाएंगे। बस फ़र्क़ इतना है कि कुम्भलगढ़ फेस्टिवल राजस्थान इंटरनेशनल फोक फेस्टिवल (RIFF रिफ्फ़) जितना महँगा और आम आदमी की पहुँच से दूर नहीं है।

 A performer playing with fire at Kumbhalgarh Festival

यह मंच हर प्रकार के कलाकारों को अवसर देता है। फिर चाहे वो आग से कलाबाज़ियां हों या फिर क्लासिकल डांस फॉर्म्स के साथ कॉन्टेम्पोररी डांस ड्रामा का फ्यूज़न।

कैसे पहुंचे कुम्भलगढ़ 

कुम्भलगढ़ राजस्थान के राजसमंद ज़िले में पड़ता है। कुम्भलगढ़ सड़क, रेल और हवाई मार्ग से जुड़ा हुआ है।

हवाई यात्रा:

कुम्भलगढ़ लिए नज़दीकी एयरपोर्ट उदयपुर है जोकि कुम्भलगढ़ से 85 किमी दूर है।

रेल यात्रा:

कुम्भलगढ़ के लिए नज़दीकी रेलवे स्टेशन फालना है जोकि 80 किमी दूर है और उदयपुर रेलवे स्टेशन 88 किमी दूर है।

सड़क यात्रा:

कुम्भलगढ़ पहुँचने के लिए राजस्थान रोडवेज की बसों के अलावा टैक्सी भी ली जा सकती है।

कब जाएं?

कुम्भलगढ़ फेस्टिवल हर साल राजस्थान टूरिज़्म द्वारा आयोजित किया जाता है। यह नवम्बर माह में आयोजित किया जाता है। डेट्स के लिए राजस्थान टूरिज़्म की वेबसाइट चेक करके जाएं।


फिर मिलेंगे दोस्तों, भारत दर्शन में किसी नए शहर की यात्रा पर, तब तक खुश रहिये, और घूमते रहिये,

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी