कुछ पंक्तियां इस ब्लॉग के बारे में :

प्रिय पाठक,
हिन्दी के प्रथम ट्रेवल फ़ोटोग्राफ़ी ब्लॉग पर आपका स्वागत है.….
ऐसा नहीं है कि हिन्दी में अच्छे ब्लॉग लिखने वालों की कमी है। हिन्दी में लोग एक से एक बेहतरीन ब्लॉग्स लिख रहे हैं। पर एक चीज़ की कमी अक्सर खलती है। जहां ब्लॉग पर अच्छा कन्टेन्ट है वहां एक अच्छी क्वालिटी की तस्वीर नहीं मिलती और जिन ब्लॉग्स पर अच्छी तस्वीरें होती हैं वहां कन्टेन्ट उतना अच्छा नहीं होता। मैं साहित्यकार के अलावा एक ट्रेवल राइटर और फोटोग्राफर हूँ। मैंने अपने इस ब्लॉग के ज़रिये इस दूरी को पाटने का प्रयास किया है। मेरा यह ब्लॉग हिन्दी का प्रथम ट्रेवल फ़ोटोग्राफ़ी ब्लॉग है। जहाँ आपको मिलेगी भारत के कुछ अनछुए पहलुओं, अनदेखे स्थानों की सविस्तार जानकारी और उन स्थानों से जुड़ी कुछ बेहतरीन तस्वीरें।
उम्मीद है, आप को मेरा यह प्रयास पसंद आएगा। आपकी प्रतिक्रियाओं की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।
आपके कमेन्ट मुझे इस ब्लॉग को और बेहतर बनाने की प्रेरणा देंगे।

मंगल मृदुल कामनाओं सहित
आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी
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गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

रंण उत्सव-2016:रंण उत्सव तो एक बहाना है, गुजरात मे बहुत कुछ दिखाना है....

रंण उत्सव-2016

रंण उत्सव तो सिर्फ़ एक बहाना है,  गुजरात मे बहुत कुछ दिखाना है....


यह लाइन किसी ने सही कही है, क्यूंकि रंण उत्सव के बहाने ही मैने बहुत कुछ ऐसा देख डाला जिसे देखने शायद अलग से मैं कभी आती ही नही गुजरात। इस बार मौक़ा था रंण उत्सव मे जाने का। चार दिन की मेरी यह तूफ़ानी यात्रा अपने मे समेटे थी बहुत कुछ अनोखा। अहमदाबाद से सुरेन्द्रनगर, सुरेन्द्रनगर से गाँधी धाम और गाँधी धाम से धोर्ड़ो गाँव जहाँ कि रंण उत्सव मनाया जाता है।  मैं पहले ही बता दूं कि इनमे से कोई भी जगह आस पास नही है लेकिन गुजरात के हाई वे बहुत अच्छे हैं कि आप बिना किसी तकलीफ़ के लंबी रोड यात्रा कर सकते हैं।



चलिए तो फिर यात्रा शुरू करते हैं। मैं अहमदाबाद पहुँच कर निकल पड़ी सुरेन्द्रनगर में वाइल्ड एस सेंचुरी  देखने।  क्या है खास इस सेंचुरी मे? यही सवाल मेरे मन मे भी उठा था।  पाँच हज़ार वर्ग किलोमीटर  मे फैला यह वेटलैंड किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।  इसे लिट्ल रंण ऑफ कच्छ कहते हैं।  यह जगह इसलिए मशहूर है कि पूरी दुनिया मे सिर्फ़ यहीं वाइल्ड एस पाए जाते आईं।  वाइल्ड एस यानि कि जंगली गधे। कहते हैं की यहाँ लगभग 3000 वाइल्ड एस हैं। इसके अलावा यहाँ कई अन्य जानवर भी पाए जाते हैं।




मुझे इस जगह की सबसे अच्छी बात यह लगी कि यहां तक पहुँचना बहुत आसान है। मीलों तक फैला वेटलैंड जिसे बड़ी आसानी से जिप्सी मे बैठ कर देखा जा सकता है। सबसे अच्छी बात तो यह है कि यह सेंचुरी बर्ड वाचिंग के लिए बहुत अच्छी है।  मेरी पिछली गुजरात की यात्रा में हम फ्लैमिंगो ढूंढते हुए मांडवी मे कितनी दूर तक समुद्र तट पर चले थे और फिर भी हमे फ्लैमिंगो नही मिले थे लेकिन यहाँ इस सेंचुरी मे जगह जगह वॉटर बॉडी बनी हुई हैं जहां फ्लैमिंगो के झुंड के झुंड देखने को मिल जाते हैं वो भी बड़ी आसानी से। बस ज़रूरत है तो  एक अदद ज़ूम लेंस की, और वो भी कम से कम 400 या 600 mm का ज़ूम लेंस ।




वाइल्ड एस  थोड़े शर्मीले होते हैं अपने नज़दीक गाड़ियों को देख कर झट से झाड़ियों मे घुस जाते हैं। हमे घूमते-घूमते शाम हो गई। सामने सूरज अस्त की ओर चल पड़ा था। यहाँ की दलदली मिट्टी नमक की अधिकता के कारंण बंजर है। लेकिन देखने मे सुंदर लगती है। दूर तक फैला मैदान और सुंदर सनसेट वहीं रुकने को मजबूर कर रहा था। यह दिसंबर का महीना है लेकिन यहाँ ठंड नही है। हवा अच्छी लग रही है। कुछ देर ठहर के सनसेट का मज़ा लिया और फिर चल पड़े अपने डेरे की ओर।

यहीं पास ही एक रिज़ॉर्ट मे ठहरने की ववस्था की गई है। पहला दिन ख़त्म होने को आया। आज चौदहवीं की तो नही लेकिन 12ह्वीं की रात है इसलिए चाँद आसमान मे कुछ ज़्यादा ही चमक रहा है। अभी इसे और चमकना होगा। चाँदनी रात मे रंण के सफेद रेगिस्तान को देखने लोग खास तौर पर पूर्णिमा के दिन आते हैं। यही वहाँ का मुख्य आकर्षण है।

दूसरा दिन थोड़ा लंबा होने वाला था हमे सुरेन्द्र नगर से गाँधी धाम की यात्रा तय करनी है। यह यात्रा कुल 206 किलो मीटर की होने वाली है। रास्ते मे हम कई गाँव देखेंगे। ऐसे गाँव जिनमे छुपा है इतिहास। कच्छ की प्राचीन हस्त कला और वैभव का इतिहास। यहीं पास ही एक गाँव है जिसका नाम है खारा घोड़ा। कहते हैं इस गाँव मे 111 साल पुराना शॉपिंग माल है। जिसे अँग्रेज़ों ने 1905 मे बनवाया था। आज यहाँ कुछ दुकाने मौजूद हैं जोकि गाँव वालों की ज़रूरत का सामान एक ही छत के नीचे उपलब्ध करवाती है। इस गाँव से थोड़ा आगे बढ़ते ही हमे नमक की खेती होते दिखने लगती है। यह पूरा प्रोसेस देखना भी एक अनुभव है। नमक कैसे बनता है इसकी कहानी तफ्सील से जानने के लिए यहाँ क्लिक करें:






अभी तक मुझे गुजरात मे आए हुए 2 दिन हो चुके हैं लेकिन मैने भूंगे नही देखे। भूंगे यानी के मिट्टी के बने गोल घर जोकि कच्छ के ग्रामीण जीवन की पहचान है। मेरी इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य था कि मैं कच्छ मे रहने वाले जनजातीय जीवन को देख पाऊं।  इसीलिए मैने इस बार गाँवों की यात्रा का मन बनाया। मेरा अगला पड़ाव होगा ऐसे ही एक गांव। जहाँ मैं कच्छी कला से जुड़े समुदायों से मिल सकूँ। हम भुज के बहुत नज़दीक हैं और भुज के नज़दीक ही एक गाँव पड़ता है जिसका नाम है सुमरासार शैख़। इस गाँव की एक ख़ासियत है। यहाँ कच्छ मे किए जाने वाली कढ़ाई के काम की सबसे बेहतरीन क़िस्म यहीं देखने को मिलती है। इस गाँव  मे कई NGO और संगठन यहाँ की कला के संरक्षण के लिए काम करते हैं। मैं धूल उड़ाती कच्ची सड़कों को पार करते हुए ऐसी ही एक जगह पहुँच गई हूँ। यह कला रक्षा केंद्र है जहाँ सूफ कला के संरक्षण के लिए कार्य किया जाता है।






यहाँ मिट्टी के गोल घर मुझे आकर्षित करते हैं जिनके बीचों बीच मे एक छोटा-सा आँगन है जहाँ काले लिबास मे कुछ महिलाएँ कढ़ाई का काम कर रही हैं। यह महिलाएँ मारू मेघवाल और रबाड़ी जनजाति से संबंध रखती है और सिंगल धागे से कपड़े पर त्रिकोण आकर की ज्योमित्री डिज़ाइन की कढ़ाई करती हैं। यह बेहद नफीस और बारीक कढ़ाई है। जिसे बड़ी महारत से किया जाता है। कहते हैं इस कला को करने वाले की ऑंखें जल्द ही साथ छोड़ जाती हैं। यह कलाकार कपडे पर उलटी तरफ ताने बानों को उठा कर कढ़ाई करती हैं और सीधी तरफ डिज़ाइन बनती जाती है। इस जनजाति का संबंध पाकिस्तान से है। और यह विस्थापित होकर यहाँ कच्छ मे आ बसे। इनके काम मे महीनो का समय लगता है। लेकिन इनके द्वारा किए गए कढ़ाई के काम की फैशन डिज़ाइनरों मे बड़ी माँग है।


मेरी इस यात्रा में ऐसे ही एक और गांव में मैंने बड़े ही खूबसूरत गोल घर देखे। इस गांव का नाम था - भरिन्डयारी,  कच्छ मे कई प्रकार की कढ़ाई के नमूने देखने को मिलते हैं।  कहते हैं यह कला पाकिस्तान के सिंध प्रांत से कच्छ मे आई और इस सफर में राजस्थानी कला और यहाँ की स्थानीय कला ने इसे और समृद्ध बनाया।  पहले महिलाएँ अपनी बेटियों के शादी के जोड़े खुद तैयार करती थीं। आज यहाँ भाँति-भाँति की कढ़ाइयाँ देखने को मिलती हैं। जैसे खारेक, पाको, राबरी, गारसिया जात और मुतवा।



मुझे सुकून है कि मैं अपनी इस यात्रा मे असली गुजरात को देख पा रही हूँ।  मेरा अगला पड़ाव है होड़का गाँव जोकि धोर्ड़ो के रास्ते मे पड़ता है। इस गाँव की ख़ासियत है यहाँ के गोल घर। मिट्टी की दीवारें और अंदर से बड़े खूबसूरत होते हैं यह घर। आप भी देखिए। एक बार यहाँ आकर यहाँ से वापस जाने का मन नही करेगा। यह लोग अपने घरों को बहुत खूबसूरती से सजाते हैं। घर की दीवारों पर, छत को सब जगह कलाकारी देखने को मिलती है।



क्यूंकि यहाँ की मिट्टी बंजर है इसीलिए शायद यहाँ के लोगों के जीवन मे रंगों का बड़ा महत्व है। इनके कपड़े बड़े कलरफुल होते हैं। रंगीन धागे, शीशा, रंगीन मोती और ऊन के बने यह वस्त्र बहुत आकर्षक हैं। भूंगों मे दिन गुज़ारने के बाद मेरी यात्रा का अंतिम पड़ाव भी आ पहुँचा है। और यह है धोर्ड़ो गाँव जोकि भुज से 80 किलोमीटेर दूर है। यहाँ से सफेद रंण शुरू होता है। यहीं पर हर साल रंण उत्सव मनाया जाता है। देखा जाए तो यहाँ कुछ भी नही है सिवाए मीलों तक फैले सफेद रंण के लेकिन यहाँ रंण उत्सव मानने के लिए पूरा का पूरा टेंट सिटी बसाया जाता है। जोकि किसी स्वप्न लोक जैसा है। ठहरने के लिए वर्ल्ड क्लास टेंट्स लगाए गए हैं और यहाँ शुद्ध गुजराती खाने का प्रबंध किया गया है।



हम दोपहर होते होते धोर्ड़ो पहुँचे। बहुत भूक लगी थी तो सीधे डाइनिंग हॉल मे पहुँच गए। यहाँ का इंतज़ाम बहुत अच्छा है।  सब कुछ पर्फेक्ट। चेक इन से लेकर खाने पीने और रंण मे जाने की व्यवस्था तक सब कुछ पर्फेक्ट।

शाम को रंण उत्सव का शुभारम्भ माननीय मुख्यमंत्री श्री विजय भाई रुपानी के हाथों एक रंगारंग कार्यक्रम के साथ हुआ। हम सब ऊंट गाड़ी पर बैठ कर रंण मे पहुँचे। दूर तक फैला रंण बहुत सुंदर दिखता है। रात मे जब पूर्णिमा का चाँद रोशनी से सारे रंण को जगमगा देगा तब सैलानी इस अद्भुत नज़ारे को देखने रंण मे आएँगे। जिसकी व्यवस्था पहले से ही की गई है।



धवल चाँदनी मे रंण देखना एक अनोखा अनुभव है। मैं कहूँगी कि यह एक ऐसा अनुभव है जिसे सिर्फ़ महसूस ही किया जा सकता है। इसलिए कैमरे मे क़ैद करने के चक्कर मे न पड़ें। बस रण  में जाकर इसका लुत्फ़ उठाएं। ठंडी हवाओं के बीच रंण मे दूर तक सफेद चाँदनी को निहारना बहुत खूबसूरत अनुभव है।



यहाँ टेंट सिटी के पास ही क्राफ्ट बाज़ार है जहाँ कच्छ के हैंडी क्रॅफ्ट आइटम खरीदे जा सकते है। मेरे इस चार दिन के प्रवास मे मैने कच्छी एंबरोएडरी की सैंकड़ों साल पुरानी विरासत को क़रीब से देखा। साथ ही भिन्न-भिन्न प्रकार की जनजातियों के लोगों के जीवन को क़रीब से देखा।

मेरी इस यात्रा का एक और हाईलाइट है और वो है यहाँ का खाना। कहते हैं गुजराती खाना मीठा होता है। पर यह पूरा सच नही है।  यहाँ मीठे के साथ कई अन्य स्वाद भी है, आप ट्राई तो कीजिए।  मैने अपनी पूरी यात्रा मे गुजरात के अलग अलग स्वादों को चखा।  खमंड, धोखला, फाफड, थेपला, गुजराती थाली और भी बहुत कुछ।



गुजरात घूमने कब जाएं?

वैसे तो वर्ष में कभी भी गुजरात घूमने जाया जा सकता है लेकिन रण उत्सव हर वर्ष दिसंबर माह में होता है जोकि फरवरी तक चलता है। अगर आप रंण उत्सव देखने जा रहे हैं तो उद्घाटन के आसपास ही जाएं। फरवरी तक मेले का उत्साह थोड़ा ठंडा हो जाता है।

कैसे पहुंचें?

रंण उत्सव धोरडो नमक गांव में किया जाता है जिसके सबसे नज़दीक भुज(71 किलोमीटर) है। रण उत्सव के लिए आप बाई एयर या ट्रैन से भी जा सकते हैं। नज़दीकी एयरपोर्ट अहमदाबाद है। भुज एयरपोर्ट सबसे नज़दीक है लेकिन फ्लाइट्स बहुत ज़्यादा नहीं हैं, जबकि अहमदाबाद एयरपोर्ट देश के सभी बड़े शहरों से जुड़ा हुआ है। अहमदाबाद से धोरडो की दूरी 370 किलोमीटर है। सड़कें अच्छी हैं लेकिन रास्ता थोड़ा लंबा है।

फिर मिलेंगे दोस्तों, भारत दर्शन में किसी नए शहर की यात्रा पर, तब तक खुश रहिये, और घूमते रहिये,

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी

गुरुवार, 10 सितंबर 2015

दा ग्रेट हिमालय कॉलिंग... आठवां दिन मनाली

दा ग्रेट हिमालय कॉलिंग... आठवां दिन मनाली

The Great Himalayas Calling...
Day-08

Beas River@ Manali


नग्गर के ऐतिहासिक मुरलीधर का मंदिर देखने के बाद हमें आगे बढ़ना होगा। मुसाफिर के लिए आगे बढ़ना ही ज़िन्दगी है। यह जगह इतनी ख़ूबसूरत है कि इसे छोड़ कर जाने का मन तो नहीं है पर जाना तो होगा ही। मैंने भारी मन से सामान बांधा और एक नज़र नग्गर कैसल के विशाल अहाते को देखा। सामने मनाली को जाने वाला रास्ता गाड़ियों की छोटी छोटी हेड लाइटों से जगमगा रहा था। यह जगह सामरिक महत्व से बहुत मुनासिब है यहां से बैठ कर पूरी कुल्लू वैली पर नज़र रखी जा सकती है। शायद इसी लिए नग्गर के राजा ने अपना दुर्ग बनाने के लिए इस स्थान का चुनाव किया होगा। नग्गर केसल के रस्टोरेंट का एक हिस्सा वैली के ऊपर बने दालानों में बना है। जहां खूबसूरत झरोखे बनाए गए हैं। हमने यहां बैठ कर अपना नाश्ता ख़त्म किया। होटल के एक स्टाफ ने नीचे इशारा करते हुए हमें एक घर दिखाया और बताया कि प्रियंका चौपड़ा की फिल्म मैरीकोम की शूटिंग इसी घर में हुई थी। हमने नग्गर कैसल को अलविदा कहा और निकल पड़े मनाली की ओर। महान हिमालय में बसे यह शांत गांव आपको वापस नहीं आने देते। दिल करता है कि कुछ दिन और गुज़ार लें। इतनी शुद्ध और ताज़ी हवा हम बड़े शहरों में रहने वालों को कहां नसीब होती है।


Beas River on the way to Manali

मेरी इस पूरी यात्रा में ब्यास नदी मेरी साथी रही है। कभी मेरे दाईं  ओर तो कभी मेरे बाईं ओर। दूध की सफ़ेद धार सा निर्मल जल जाने कितनों की प्यास बुझाता होगा। रिवर राफ्टिंग के शौकीनों के लिए यह जगह स्वर्ग जैसी है। मनाली के रास्ते में कई सारे पॉइंट्स हैं जहां से रिवर राफ्टिंग की जा सकती है। 


River rafting in Beas river

एक बार फिर हम पहाड़ों की पतली सडकों पर थे जो किसी हसीना की कमर पर झूलती कंधोनी की तरह पहाड़ों से लिपटी हुई मनाली की ओर आगे बढ़ रही थी। नग्गर से मनाली लगभग 18 किलोमीटर दूर है। यहां तक का हमारा सफर बेहद सुकून भरा और मन को शांत करने वाला था। यहां शोर तो था पर एकदम अलग क़िस्म का, चिड़ियों की चहचहाट का शोर, बड़े-बड़े पत्थरों पर नदी की तेज़ धार के टकराना का शोर, हवा के झोकों कर झूलते पाइन की कोमल कलियों का आपस में टकराने का शोर। इस घने जंगल में पेड़ों के झुरमुट से आती झींगरों की आवाज़ों का शोर, दूर गांव में किसी के लकड़ियां काटने का शोर, सड़क के बीचों बीच धान की घांस सुखाती पहाड़नों की खिलखिलाहट का शोर, किसी झोंपड़ी में शांत दोपहर में याक की ऊन से हथकरघे पर शॉल बुनने की खड़-खड़ का शोर। गांव की चौपाल पर बैठे पहाड़ी बुज़ुर्गों के हुक्के की गुड़गुड़ का शोर। पहाड़ी सड़क के अंधे ख़तरनाक मोड़ पर सामने से आती गाड़ी के हॉर्न से आता, एकांत की नीरवता को भंग करता शोर। हमारी दुनियां के शोर से बिलकुल जुदा और कानों को भला लगने वाला। 


The Dhauladhar range


लेकिन मनाली पहुंचते पहुंचते मेरा यह सुन्दर सपना डीज़ल की गाड़ियों से निकलते प्रदूषण और लगातार बजते हॉर्न से आते शोर से टूट गया। मेरी एक सलाह है, अगर आप हिमालय की यात्रा प्राकृतिक सुंदरता और शांति के लिए करना चाहते हैं तो हिमालय के अंदरुनी हिस्सों में जाएं। मनाली इतना ज़्यादा टूरिस्ट एरिआ बन चुका है कि अपनी सुंदरता ही खो बैठा है। मनाली शुरू होते ही जगह जगह कुकुरमुत्ते से उग आए होटल पहाड़ों की क़ुदरती खूबसूरती को निगलते से जान पड़ते हैं। इतनी शांत जगह से होकर आते हुए मेरे लिए मनाली में रुकना बहुत मुश्किल था। 


KK@Vashishth


शुक्र है हमने अपने ठहरने की व्यवस्था मनाली से बाहर वशिष्ठ में की थी। यह मनाली से थोड़ा आगे पड़ता है और मनाली की भीड़ और आपाधापी से बचा हुआ है। वशिष्ट मनाली से मात्र तीन किलोमीटर आगे लेह मनाली हाइवे पर दाईं ओर थोड़ा ऊपर जाकर पड़ता है। जिसके बाईं ओर ब्यास नदी बहती है और उसके पीछे विशाल पीर पंजाल पर्वत श्रंखला क़तार में खड़ी है।


on the way to Manali-wooden carving work on the gate of a temple

 यहां प्रसिद्ध ऋषि वशिष्ठ का मंदिर है और कुदरती गर्म पानी के सोते भी है। यह जगह ट्रैवलर्स के बीच काफी पसंद की जाती है। यहां मनाली की भीड़ न होकर शांत वातावरण है। पहाड़ी पठार पर बसा वशिष्ठ गांव आज देसी विदेशी ट्रैवलर्स के ठहरने की पहली पसंद है। यहां कई अच्छे कैफे और रेस्टॉरेन्ट बने हुए हैं। हमने यहां पीरपंजाल कॉटेज में स्टे किया। यह एक कोलोनियल लुक वाली दो मंज़िला कॉटेज थी ,जोकि सेब के बागान के बीच बनी हुई थी। हमारी होस्ट दो नौजवान लड़कियां थीं। जिनमे से एक देहरादून और दूसरी पुणे की थी और आजकल टेंपरेरी तौर पर इस कॉटेज के मैनेजर कम कयर टेकर की जॉब कर रही थी।


Girls playing in the campus of the temple


हमने फ्रेश होकर मनाली घूमने का प्लान बनाया। मनाली सिटी में एक मंदिर है जिसे देखने लगभग सभी जाते हैं-हिडिम्बा देवी टैम्पल। हमने भी यहीं से शुरुआत की।
यह मंदिर मनाली के पास ढूंगरी नामक स्थान पर पाइन के जंगलों में एक ऊंचे शिखर पर बना हुआ है। कहा जाता है कि यह मंदिर हिडिम्बा देवी को समर्पित है। हिडिम्बा देवी का सम्बन्ध महाभारत के भीम से जुड़ा हुआ है। यहां के लोग इस से जुड़ी बड़ी रोचक कहानी सुनाते हैं। लीजिये आप भी सुनिए।


Hidimba devi temple


महाभारत काल में जब पांडव वनवास का समय जंगल में गुज़ार रहे थे, तब पांडवों का घर जला दिया गया था, पांडवों ने वहां से भाग कर एक दूसरे वन में शरण ली थी। जहाँ पीली आँखों वाला हिडिंब राक्षस अपनी बहन हिंडिबा के साथ रहता था। एक दिन हिडिंब ने अपनी बहन हिंडिबा से वन में भोजन की तलाश करने के लिये भेजा परन्तु वहां हिंडिबा ने पाँचों पाण्डवों सहित उनकी माता कुन्ति को देखा। इस राक्षसी का भीम को देखते ही उससे प्रेम हो गया, हिडिम्बा भीम के बल और शक्तिशाली शरीर को देख कर उस पर मोहित हो गई और उसने एक सुन्दर रूपवती का भेस बना कर भीम को सब सच बता दिया। हिडिम्बा ने अपने भाई से पांडवों की रक्षा की और भीम को अपने भाई से युद्ध करने में मदद की जिससे खुश होकर वहाँ जंगल में ही कुंती की आज्ञा से हिंडिबा एवं भीम दोनों का विवाह हुआ। यह मंदिर उन्हीं देवी हिडिम्बा को समर्पित है। वैसे तो यह मंदिर अति प्राचीन है पर इसका पैगोडा शैली में निर्माण महाराजा बहादुर सिंह ने 15वीं शताब्दी में करवाया। उन्होंने ही नग्गर के त्रिपुरा सुंदरी मंदिर का भी निर्माण करवाया था इसी लिए देखने में यह दोनों मंदिर एक जैसे दिखाई देते हैं।
इस मंदिर तक जाने के दो रास्ते हैं। हमारा ड्राइवर हमें उत्तरी द्वार से मंदिर की सीढ़ियों तक लेकर गया। अगर आप मुख्य द्वार से आएंगे तो आपको ज़्यादा चलना पड़ेगा। उत्तरी द्वार कॉलोनी से होकर गुज़रता है। पाइन के ऊंचे-ऊंचे पेड़ों के बीच लकड़ी और पत्थर से बना यह मंदिर पर्यटकों से भरा हुआ था। यहां के स्थानीय लोगों में इस जगह की विशेष मान्यता है। इस मंदिर का एक और नाम भी है-धूंगरी मंदिर। यह पूरा का पूरा मंदिर लकड़ी का बना है इसकी छत भी लकड़ी से ही बनाई गई है। दीवारें भी लकड़ी की ही है जिनपर नक्कशी से देवी-देवताओं के जीवन की एक झलक दिखाई गई है, मंदिर के भीतर महिषासुर मर्दिनी की मूर्ति है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर लकड़ी पर कुल्लू रियासत के तत्कालीन राजा बहादुर सिंह का नाम और निर्माण तिथि संवत् 1436 अंकित है।
इस मंदिर की ऊंचाई 40 मीटर है। इसका आकार कोन(शंकु) जैसा है। पैगोडा शैली के इस मंदिर की विशेषता यह है कि इसके चार छतें हैं। ऊपर तीन छतें वर्गाकार हैं और चौथी छत कोन(शंकु) आकर की है जिस पर चारों ओर पीतल लगा है। नीचे से ऊपर की ओर हर छत क्रमश: छोटी होती जाती है और शीर्ष तक पहुँच कर कलश का आकार ले लेती है.


KK@Hidimba devi temple


हम मंदिर प्रांगण में खड़े इस विशाल और ऐतिहासिक मंदिर को देख रहे थे, मंदिर से लगे हुए ही पुष्प वाटिका है। हमने मंदिर को अंदर से देखने का फैसला किया। इस मंदिर में, हिडिम्बा देवी के पैर के निशान भी हैं जिन्हें एक गुफा के भीतर सुरक्षित रखा गया है। मंदिर की दीवार पर अनेक पशुओं के सींग टंगे हैं जैसे बकरे, मेंढे और भैंसे, यामू, टंगरोल और बारासिंघा। कहते हैं यहां पर जानवरों की बलि दी जाती थी और उसके बाद उनकी सींग यहीं पर टांग दिए जाते थे।

मंदिर के भीतर माता की एक पालकी है जिसे समय-समय पर रंगीन वस्त्र एवं आभूषणों से सुसज्जित करके बाहर निकाला जाता है। हिडिम्बा को काली का अवतार कहा गया है। इसी कारण इस मंदिर के अन्दर दुर्गा की मूर्ति भी है। हिडिम्बा मनाली के ऊझी क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। इसलिए यहां के लोग खुद को हिडिम्बा देवी की प्रजा मानते हैं। ज्येष्ठ संक्रांति के दिन ढूंगरी में देवी के यहां भारी मेला लगता है। मंदिर के बाहर श्रद्धालुओं का तांता लगा हुआ था। मंदिर के प्रांगण में लोग हिमाचली ड्रेस में फोटो खिंचवा रहे थे। एक ग्रामीण महिला हाथों में अंगोरा खरगोश लिए लोगों को दिखा रही थी। यह खरगोश हमारे यहां पाए जाने वाले खरगोश से आकार में बड़ा होता है और इसके बाल भी बड़े बड़े होते हैं। इस खरगोश के बालों से ऊन बनाई जाती है ,जिससे कई चीज़ें बनती हैं ,जैसे स्वेटर,शॉल आदि। यह शॉल बहुत हलकी और मुलायम होती है। अगर आप भी यह शाल खरीदना चाहते हैं तो हिमाचल हैंडलूम की शॉप से ही खरीदें। यह शॉल थोड़ी क़ीमती होती है पर गर्म बहुत होती है। आप भी दस रुपए  देकर अंगोरा खरगोश को गोद में उठा सकते हैं।

A beatuful girl with a soft Angora rabbit 


मंदिर देखते देखते हमें पूरे दो घंटे लग गए। इसके बाद हमने लंच किया और सोलांग वैली  देखने निकल गए।
सोलांग वैली का ब्यौरा अगली पोस्ट में।

इस सीरीज़ की अगली पोस्ट देखने के लिए यहां क्लिक करें:


फिर मिलेंगे दोस्तों, अगले पड़ाव में हिमालय के कुछ अनछुए पहलुओं के साथ,


तब तक खुश रहिये, और घूमते रहिये,

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त


डा० कायनात क़ाज़ी


गुरुवार, 27 अगस्त 2015

दा ग्रेट हिमालय कॉलिंग....सातवां दिन ऐतिहासिक मुरलीधर का मंदिर, नग्गर, हिमाचल प्रदेश

दा ग्रेट हिमालय कॉलिंग....सातवां दिन
ऐतिहासिक मुरलीधर का मंदिर, नग्गर
The Great Himalayas Calling...Murlidhar Temple,Naggar, Himachal Pradesh
Day-07

Murlidhar tample naggar himachal
इस सीरीज़ की पिछली पोस्ट देखने के लिए यहां क्लिक करें: दा ग्रेट हिमालय कॉलिंग....पांचवां दिन, नग्गर

नग्गर हिमाचल का एक छोटा क़स्बा माना जा सकता है। यहां अनेक मंदिर हैं। नग्गर यहां बने दुर्ग नग्गर कैसल के लिए बहुत प्रसिद्ध है। जिसके बारे में आप मेरी पिछली पोस्ट  में पहले ही विस्तार से पढ़ चुके है। नग्गर को मंदिरों का नगर भी कहा जाता है, क्योंकि यही एक ऐसा गांव है, जहां स्थानीय शैली से लेकर मध्ययुगीन पहाड़ी शिखर शैली के मंदिर मिलेंगे। जब हम कैसल से बाहर नग्गर घूमने निकले तो हमें सबसे पहले कैसल केमुख्य द्वार के सामने मंदिर मिला, इसका नाम नार सिंह देवता मंदिर था । हम थोड़ा आगे बढे तो गांव के बीचो-बीच गौरीशंकर का पाषाण मंदिर मिला। इस प्रकार के तीन और मंदिर भी नग्गर में मिलेंगे। एक मंदिर देवी भटन्ती का है तो दूसरा ठाकुर ढावाहै। गांव में ही देवी त्रिपुर सुन्दरी का मंदिर है।

Tripura Sundri Temple



 यह मंदिर हिडिम्बा मंदिर के समान पैगोडा शैली का है। इस प्रकार के मंदिरों की तीन से चार छतें होती हैं, जो नीचे से ऊपर की ओर क्रमश: छोटी होती चलती है और सबसे ऊपर कलश होता है। त्रिपुरा सुन्दरी पौराणिक देवी होते हुए भी इसे स्थानीय देवी-देवताओं के समान मान्यता है। देवी का अपना रथ और एक सुचारु तंत्र है। यहां मई मास में नग्गर में षाढ़ी जाचनाम से एक बड़ा मेला लगता है जब आसपास के अनेक देवी-देवता सज-धज कर नग्गर आते हैं। इन मंदिरों के अलावा भी नग्गर में एक प्राचीन मंदिर है जिसका सम्बन्ध महाभारत काल से माना जाता है। यहां के लोग मानते हैं कि महाभारत के समय भगवान श्री कृष्ण यहां आए थे। इस मंदिर का नाम है-ऐतिहासिक मुरलीधर का मंदिर।

Murlidhar tample naggar himachal

यहां पहुंचने के लिए नग्गर कैसल से थोड़ा आगे जाकर ऊपर जंगल से होकर रास्ता बना हुआ है। 20-30 मिनिट की ट्रेक्किंग के बाद यहां पहुंचा जा सकता है। यह ट्रेकिंग आसान है। पाइन के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों से ढका जंगल बहुत खूबसूरत लगता है। हमने बड़ी आसानी से इस चढ़ाई को लगभग तीस मिनट में पार कर लिया था. इस मंदिर तक पहुंचने के दो रास्ते हैं, एक पैदल का रास्ता है दूसरा घूमकर आता है। उस रास्ते से शायद कार भी आ सकती है। हम जब ऊपर अहुंचे तो हमने मंदिर के बाहर एक कार खड़ी देखी। जिसे देख मुझे बहुत हैरानी हुई। एक पहाड़ की छोटी तक यह कार कैसे पहुंची? मालूम करने पर पता चला कि एक और रास्ता भी है जिसके ज़रिये गाड़ी भी लाई जा सकती है।

Shikhare style architecture

हमने मंदिर के प्रांगण में एक रथ भी देखा, जिसका प्रयोग भगवान श्री कृष्ण की शोभा यात्रा के समय किया जाता है।इस मंदिर में भगवान श्री कृष्ण,राधा, पद्मसम्भव,लक्ष्मी नारायण और गरुण देवता की प्राचीन मूर्तियां स्थापित हैं। यहां हर वर्ष दशहरा बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है। इस मंदिर को कुल्लू के  राज घराने का आश्रय प्राप्त था। यहीं पर कुल्लू का प्रसिद्ध दशहरा मनाया जाता है। 

Temple Architecture

 मंदिर के पुरोहित जी ने हमारा स्वागत बड़ी आत्मीयता से किया। उन्होंने ही बताया कि इस मंदिर का निर्माण महाभारत काल में हुआ था। और इस मंदिर की बड़ी मान्यता है। यहां जो भी मन्नत मांगों वह ज़रूर पूरी होती है। लोग दूर-दूर से यहां मन्नत मांगने आते हैं। इस मंदिर की वास्तुकला देखने लायक है। आप जब नग्गर आएं तब यहां ज़रूर जाएं।

A very rear idol of 3 faces Lord Bramha at Murlidhar tample naggar himachal


Purohit ji at Murlidhar tample naggar himachal

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आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त


डा० कायनात क़ाज़ी

बुधवार, 22 जुलाई 2015

जोधपुर का मंडोर गार्डन एक ट्रैवलर को ज़रूर देखना चाहिए



वर्षों से जोधपुर राजपुताना वैभव का केन्द्र रहा है। जिसके प्रमाण आज भी जोधपुर शहर से लगे अनेक स्थानों पर प्राचीन इमारतों के रूप में मिल जाते हैं। जोधपुर से 9 किलोमीटर की दूरी पर एक ऐतिहासिक स्थान मौजूद है जिसको मंडोर गार्डन के नाम से पुकारा जाता है। इसी के नाम पर एक ट्रैन का नाम भी रखा गया है-मंडोर एक्सप्रेस जोकि दिल्ली से जोधपुर के लिए चलती है। मैंने भी जोधपुर पहुंचने के लिए इसी ट्रेन का रिजर्वेशन करवाया था। यह ट्रैन शाम को पुरानी दिल्ली से चलती है और सुबह सात बजे जोधपुर पहुंचा देती है।



मण्डोर का प्राचीन नाम माण्डवपुरथा। जोधपुर से पहले मंडोर ही जोधपुर रियासत की राजधानी हुआ करता था। राव जोधा ने मंडोर को असुरक्षित मानकर सुरक्षा के लिहाज से चिड़िया कूट पर्वत पर मेहरानगढ़ फोर्ट का निर्माण कर अपने नाम से जोधपुर को बसाया था तथा इसे मारवाड़ की राजधानी बनाया। वर्तमान में मंडोर दुर्ग के भग्नावशेष ही बाकी हैं, जो बौद्ध स्थापत्य शैली के आधार पर बने हैं। इस दुर्ग में बड़े-बड़े प्रस्तरों को बिना किसी मसाले की सहायता से जोड़ा गया था।



मैंने अपने होटल के मैनेजर से यहां से जुड़ी कुछ जानकारियां जुटाईं। जोधपुर के आसपास ही कई देखने लायक ऐतिहासिक स्थल हैं जिसमे मंडोर अपनी स्थापत्य कला के कारण दूर-दूर तक मशहूर है। मंडोर गार्डन जोधपुर शहर से पांच मील दूर उत्तर दिशा में पथरीली चट्टानों पर थोड़े ऊंचे स्थान पर बना है।

ऐसा कहा जाता है कि मंडोर परिहार राजाओं का गढ़ था। सैकड़ों सालों तक यहां से परिहार राजाओं ने सम्पूर्ण मारवाड़ पर अपना राज किया। चुंडाजी राठौर की शादी परिहार राजकुमारी से होने पर मंडोर उन्हें दहेज में मिला तब से परिहार राजाओं की इस प्राचीन राजधानी पर राठौर शासकों का राज हो गया। मन्डोर मारवाड की पुरानी राजधानी रही है|



यहां के स्थानीय लोग यह भी मानते हैं कि मन्डोर रावण की ससुराल था। शायद रावण की पटरानी का नाम मन्दोद्री होने के कारण से ही इस जगह का नाम मंडोर पड़ा. यह बात यहां एक दंत कथा की तरह प्रचलित है। लेकिन इस बात का कोई ठोस प्रमाण मौजूद नहीं है।
मण्डोर स्थित दुर्ग देवल, देवताओं की राल, जनाना, उद्धान, संग्रहालय, महल तथा अजीत पोल दर्शनीय स्थल हैं।



मंडोर गार्डन एक विशाल उद्धान है। जिसे सुंदरता प्रदान करने के लिए कृत्रिम नहरों से सजाया गया है। जिसमें 'अजीत पोल', 'देवताओं की साल' 'वीरों का दालान', मंदिर, बावड़ी, 'जनाना महल', 'एक थम्बा महल', नहर, झील व जोधपुर के विभिन्न महाराजाओं के समाधि स्मारक बने है.  लाल पत्थर की बनी यह विशाल इमारतें स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने हैं। इस उद्धान  में देशी-विदेशी पर्यटको की भीड़ लगी रहती है। यह गार्डन पर्यटकों के लिए सुबह आठ से शाम आठ बजे तक खुला रहता है।



जोधपुर और आसपास के स्थान घूमने का सबसे अच्छा साधन है यहां चलने वाले टेम्पो। आप थोड़ी बार्गेनिंग करके पूरे दिन के लिए टेम्पो वाले को घुमाने के लिए तय कर सकते हैं। मैंने भी टेम्पो को पूरे दिन के लिए तय कर लिया। मैं टेम्पो में बैठ कर मंडोर गार्डन पहुंची। यहां काफी लोग आते हैं। आप खाने पीने का सामान गार्डन के गेट से खरीद कर अंदर ले जा सकते हैं। पर थोड़ी सावधानी ज़रूरी है। यहां पर बड़े-बड़े लंगूर रहते हैं जोकि खाना छीन कर भाग जाते हैं। इस जगह को देखने से पहले यहां के इतिहास के बारे में थोड़ी जानकारी ज़रूरी है। यहां का इतिहास जो थोड़ा बहुत  मुझे यहां के लोगों से पता चला है। मैं आपके साथ साझा करती हूं।



मंडोर गार्डन का इतिहास
उद्धान में बनी कलात्मक भवनों का निर्माण जोधपुर के महाराजा अजीत सिंह व उनके पुत्र महाराजा अभय सिंह के शासन काल के समय सन् 1714 से 1749 ई. के बीच हुआ था। उसके पश्चात् जोधपुर के विभिन्न राजाओं ने इस उद्धान की मरम्मत आदि करवाई और समय समय पर इसे आधुनिक ढंग से सजाया और इसका विस्तार किया। आजकल यह सरकारी अवहेलना और भ्रष्टाचार की मार झेल रहा है। इस स्थान के रख रखाव पर ध्यान दिया जाना बहुत ज़रूरी है। रखरखाव की कमी से पानी की नहर कचरे से भर चुकी है। जिसे देख कर मुझे काफी अफ़सोस हुआ।

The Ek Thamba Mahal At Mandore Garden.


यह स्मारक पूरे राजस्थान में पाई जाने वाली राजपूत राजाओं की समाधि स्थलों से थोड़ा अलग हैं। जहां अन्य जगहों पर समाधि के रूप में विशाल छतरियों का निर्माण करवाया जाता रहा है। वहीँ जोधपुर के राजपूत राजाओं ने इन समाधि स्थलों को छतरी के आकर में न बनाकर ऊंचे चबूतरों पर विशाल मंदिर के आकर में बनवाया।
मंडोर उद्धान के मध्य भाग में दक्षिण से उत्तर की ओर एक ही पंक्ति में जोधपुर के महाराजाओं के समाधि स्मारक ऊंची पत्थर की कुर्सियों पर बने हैं, जिनकी स्थापत्य कला में हिन्दू स्थापत्य कला के साथ मुस्लिम स्थापत्य कला का उत्कृष्ट समन्वय देखा जा सकता है। जहां एक ओर राजाओं की समाधि  स्थल ऊंचे पत्थरों पर मंदिर के आकार के बने हुए हैं वहीं रानियों के समाधि स्थल छतरियों के आकर के बने हुए हैं। यहां पत्थरों पर की हुई नक्कारशी देखने लायक है। यहां मूर्तिकला के उत्कृष्ट नमूने देखने को मिलते हैं। यह समाधि स्थल बाहर से जितने विशाल हैं अंदर से भी उतने ही सजाए गए हैं। गहरे ऊंचे नक्कार्शीदार गुम्बद, पत्थरों पर उकेरी हुई मूर्तियों वाले खम्बे और दीवारें उस समय के लोगों की कला प्रेमी होने का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं।



 इनमें महाराजा अजीत सिंह का स्मारक सबसे विशाल है। यह उद्धान रोक्स पर बनाया गया था। उसके बावजूद यहां पर पर्याप्त हरयाली नज़र आती है। लाल पत्थरों की एकरूपता को खत्म करने के लिए यहां हरयाली का विशेष ध्यान रखा गया था जिसके लिए उद्धान के बीचों बीच से नहर निकाली गई थी। स्मारकों के पास ही एक फव्वारों से सुसज्जित नहर के अवशेष हैं, इन्हें देख कर लगता है कि कभी यह नहर नागादडी झील से शुरू होकर उद्धान के मुख्य दरवाजे तक आती होगी तो कितनी सुन्दर और कितनी सजीली दिखती होगी। नागादडी झील का निर्माण कार्य मंडोर के नागवंशियों ने कराया था, जिस पर महाराजा अजीत सिंह व महाराजा अभय सिंह के शासन काल में बांध का निर्माण कराया गया था।



यहां एक हॉल ऑफ हीरों भी है। जहां चट्टान पर उकेर कर दीवार में तराशी हुई आकृतियां हैं जो हिन्दु देवी-देवतीओं का प्रतिनिधित्व करती है। अपने ऊंची चट्टानी चबूतरों के साथ, अपने आकर्षक बगीचों के कारण यह प्रचलित पिकनिक स्थल बन गया है।



मैंने  उधान में घूमते घूमते अजीत पोल, 'देवताओं की साल', 'वीरों का दालान', मंदिर, बावड़ी, 'जनाना महल', 'एक थम्बा महल', नहर, झील व जोधपुर के विभिन्न महाराजाओं के स्मारक देखे। मंडोर गार्डन को तसल्ली से देखने के लिए कमसे कम आधा दिन तो लग ही जाता है। इसलिए यहां के लिए समय निकाल कर आएं। क्यूंकि यहां चलना अधिक पड़ता है इसलिए आरामदेह जूते पहन कर आएं और तेज़ धूप से बचने के लिए स्कार्फ या छतरी साथ लाएं।



जोधपुर कैसे पहुँचें?
जोधपुर शहर का अपने हवाई अड्डा और रेलवे स्टेशन हैं जो प्रमुख भारतीय शहरों से अच्छी तरह से जुड़े हैं। नई दिल्ली का इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा निकटतम अंतरराष्ट्रीय एयरबेस है। पर्यटक जयपुर, दिल्ली, जैसलमेर, बीकानेर, आगरा, अहमदाबाद, अजमेर, उदयपुर, और आगरा से बसों द्वारा भी यहां तक पहुंच सकते हैं।

कब जाएं?
इस क्षेत्र में वर्ष भर एक गर्म और शुष्क जलवायु बनी रहती है। ग्रीष्मकाल, मानसून और सर्दियां यहां के प्रमुख मौसम हैं। जोधपुर की यात्रा का सबसे अच्छा समय अक्टूबर के महीने से शुरू होकर और फरवरी तक रहता है।

कहां ठहरें ?
मंडोर से जोधपुर 8 किलोमीटर दूर है। इसलिए ठहरने के लिए जोधपुर एक अच्छा विकल्प है। जोधपुर में ठहरने के हर बजट के होटल हैं। अगर आप राजस्थानी संस्कृति और ब्लू सिटी का फील लेने जोधपुर जा रहे हैं तो ओल्ड सिटी में ही रुकें। यह स्टेशन से ज़्यादा दूर नहीं है। विदेशों से आए सैलानी यहां ओल्ड ब्लू सिटी में बड़े चाव से रुकते हैं। ब्लू सिटी मेहरानगढ़ फोर्ट के दामन  में बसा पुराना शहर है। जहां कई होटल और होम स्टे मिल जाते हैं। पर यहां ठहरने के लिए पहले से बुकिंग करवालें क्यूंकि विदेशियों में ब्लू सिटी का अत्यधिक क्रेज़ होने के कारण यह वर्ष भर भरे रहते हैं।

कितने दिन के लिए जाएं?
जोधपुर और उसके आसपास के स्थान सुकून से देखने के लिए कमसे कम 3-4 दिन का समय रखें।



फिर मिलेंगे दोस्तों, अगले पड़ाव में राजस्थान के कुछ अनछुए पहलुओं के साथ,

तब तक खुश रहिये, और घूमते रहिये,

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त




डा० कायनात क़ाज़ी