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कुछ पंक्तियां इस ब्लॉग के बारे में :

प्रिय पाठक,
हिन्दी के प्रथम ट्रेवल फ़ोटोग्राफ़ी ब्लॉग पर आपका स्वागत है.….
ऐसा नहीं है कि हिन्दी में अच्छे ब्लॉग लिखने वालों की कमी है। हिन्दी में लोग एक से एक बेहतरीन ब्लॉग्स लिख रहे हैं। पर एक चीज़ की कमी अक्सर खलती है। जहां ब्लॉग पर अच्छा कन्टेन्ट है वहां एक अच्छी क्वालिटी की तस्वीर नहीं मिलती और जिन ब्लॉग्स पर अच्छी तस्वीरें होती हैं वहां कन्टेन्ट उतना अच्छा नहीं होता। मैं साहित्यकार के अलावा एक ट्रेवल राइटर और फोटोग्राफर हूँ। मैंने अपने इस ब्लॉग के ज़रिये इस दूरी को पाटने का प्रयास किया है। मेरा यह ब्लॉग हिन्दी का प्रथम ट्रेवल फ़ोटोग्राफ़ी ब्लॉग है। जहाँ आपको मिलेगी भारत के कुछ अनछुए पहलुओं, अनदेखे स्थानों की सविस्तार जानकारी और उन स्थानों से जुड़ी कुछ बेहतरीन तस्वीरें।
उम्मीद है, आप को मेरा यह प्रयास पसंद आएगा। आपकी प्रतिक्रियाओं की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।
आपके कमेन्ट मुझे इस ब्लॉग को और बेहतर बनाने की प्रेरणा देंगे।

मंगल मृदुल कामनाओं सहित
आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी

Monday, 23 November 2015

भारतीय अरेबिक स्थापत्यकला का उत्कृष्ठ नमूना श्रीनगर की जामा मस्जिद

कश्मीर चौथा दिन 
इस श्रंखला की पिछली पोस्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें : कश्मीर तीसरा दिन 

Main building of Jamia Masjid


कश्मीर में सूफिज़्म की जड़ों की तलाश अभी बाक़ी है मेरे दोस्त। इस सफर का अगला पड़ाव है यहाँ की  जामा मस्जिद। भीड़ भाड़ से भरे पुराने शहर यानी की डाउन टाउन में यह जगह सुकून देने वाली है। मैं डाउन टाउन की ऊंची नीची सड़कों को लांघती हुई जामा मस्जिद पहुंचती हूं। जामा  मस्जिद के दरवाज़े पर बने भारतीय सेना का बंकर मेरा बेदिली से स्वागत करता है। पूरे भारत में बेधड़क घूमने वाली मुझ यायावर के लिए यह एक अच्छा संकेत नहीं है। लोगों से खचाखच भरे मुहल्ले के बीच  बंकर होना आंखों को थोड़ा चुभता है।

Beautiful Indo-Saracenic architecture @Jamia Masjid


 हमारे देश में स्मारकों के बाहर सुरक्षा तो होती है पर बंकर बना कर फ़ौज को चौबीसों घण्टे पहरा देना पड़े ऐसे बुरे हालात तो कहीं नहीं हैं। बंकर के बाहर फौजी अपनी शिफ़्ट बदल रहे थे। मेरे दिमाग़ में एक सवाल था जिसकी जिज्ञासा में शांत करना चाहती थी। मैंने अपने ऑटो वाले से पूछा,- ख़ुदा के घर के बाहर यह बंकर क्यों ?क्या ज़रूरत है इसकी ?
मेरा ऑटो वाला एक 19 -20 बरस का कश्मीरी नौजवान था। वह बड़े ही जोश से बोला,-" जुम्मे के रोज़ यहां बहुत लोग नमाज़ अदा करने आते हैं और हमारे नेता मीर वाइज़ उमर फ़ारूख़ तक़रीर करते  हैं।"
मुझे उसकी बात समझ नहीं आई। क्यूंकि जुम्मे की नमाज़ से पहले धार्मिक गुरु लोगों को सम्बोधित करते हैं और जीवन से जुड़ी अच्छी बातों को बताते हैं, ऐसा सभी जगह होता है। मैंने वज़ाहत करनी चाही,-" इसके लिए बंकर की क्या ज़रूरत है ?" 
उसने बताया,-"तक़रीर के बाद पथराव होता है, इसलिए।"
पथराव ? मुझे हैरानी हुई। 
पथराव क्यों ? मैंने पूछा। 
इस्लाम को बचाने के लिए ? वह बोला 
मगर किससे ? इस्लाम में कहां लिखा है कि पथराव करो ? मैंने पूछा 
बहन, आप समझी नहीं ,वह पुरअमन तरीक़े से पथराव होता है, उसने मुझे समझाया। 
मैं वाक़ई नहीं समझी , यह पुरअमन तरीक़े से पथराव क्या  होता है ? 
पथराव पुरअमन कैसे हो सकता है? मेरी समझ से परे था। यह था कश्मीर का एक और रूप … 
इस बातचीत से यह ज़रूर साफ हो गया कि यहां भारतीय सेना के बंकर की ज़रूरत क्यों है। मैंने ख़ुदा के घर में दाख़िल होते हुए इस हसीन वादी के लिए अमन और चैन की दिल से दुआ की। ख़ुदा यहां के भोले भाले लोगों को सद्बुद्धि दे। 


Lady praying in the courtyard@Jamia Masjid 

आएं अंदर चलकर इस खूबसूरत ईमारत को देखते हैं। इस मस्जिद का निर्माण सुल्तान सिकंदर ने करवाया था। इस मस्जिद का ताल्लुक़ सूफ़ीज़्म से ऐसे है कि इसे बनवाने की हिदायत सुल्तान सिकंदर को शाह ए हमदान के बेटे मीर मुहम्मद हमदानी ने दी थी। बाद में उनके पुत्र ज़ैनुल अबिदीन ने  इसे और बड़ा बनवाया। यह एक विशाल मस्जिद है जिसमे एक वक़्त में लगभग तैतीस हज़ार लोग नमाज़ अदा कर सकते हैं। यह मस्जिद भारतीय और अरेबिक वास्तुकला का उत्कृष्ठ नमूना है। हम सदर दरवाज़े से दाख़िल होते ही इसके बड़े कोर्टयार्ड में पहुंचे। यह दालान बड़े बड़े लकड़ी के खम्बों से घिरा हुए हैं। इस मस्जिद में लगभग 377 लकड़ी के खम्बे हैं। जिनके बीच कश्मीरी क़ालीन बिछे हुए हैं जिनपर लोग नमाज़ पढ़ते हैं। इन दालानों के पार एक खूबसूरत गार्डन है जिसके बीचों बीच एक फुव्वारा है जिसके चारों तरफ बैठ कर लोग वुज़ू किया करते हैं। यहां बहुत शांति है। इस मस्जिद में महिलाऐं भी जा सकती हैं, लेकिन उनको सिर ढक कर जाना होता है। इस मस्जिद के दरवाज़े सभी के लिए खुले हैं। यहां कोई भी निसंकोच जा सकता है। मीर वाइज़ उमर फ़ारूख़ इस मस्जिद के मुख्य इमाम हैं। 

Local Kids @Jamia Masjid


आप ऐसे ही बने रहिये मेरे साथ.

हिमालय के अनेक रूपों में से एक के साथ...

कल हम चलेंगे सुबह-सुबह डल लेक के अंदर लगने वाली वेजिटेबल मार्केट देखने।

KK@Jamia Masjid


तब तक के लिए खुश रहिये और घूमते रहिये।

आपकी हमसफर आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी





Friday, 20 November 2015

आएं तलाशें डाउन टाउन श्रीनगर में सूफिज़्म की जड़ें

शाह-ए-हमदान और दस्तगीर साहेब 
Kashmir Day-3
इस श्रंखला की पिछली पोस्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें : कश्मीर दूसरा दिन 
कश्मीर तीसरा दिन 


Shah-e-Hamdan

दूसरा दिन डल लेक के आसपास बने मुग़ल गार्डन्स देखने में निकल गया। श्रीनगर इतना बड़ा है कि आप इसे एक दिन में नहीं देख सकते है। इसलिए मैंने पहले दिन सिर्फ गार्डन्स ही देखे। आज में आपको ले चलती हूं पुराने श्रीनगर में। जहां हम ढूंढेंगे मध्य एशिया से भारत में आए सूफ़ीज़्म की जड़ों को। 
A lady praying @Shah-e-Hamdan

कहते हैं भारत में सूफ़ीज़्म पंद्रहवीं शताब्दी के आसपास आया। जब मध्य एशिया से इस्लाम का विस्तार हुआ और वहां के योद्धाओं ने पूरे विश्व में इस्लाम के प्रचार के लिए अपने पांव फैलाए तो चारों तरफ एक अजीब मंज़र था। धार्मिक कट्टरता ने शांत देश में उथल पुथल मचा दी। धर्म के इन प्रचारकों के बीच ऐसे भी कुछ लोग थे जो धार्मिक कट्टरता के ख़िलाफ़ थे और विस्तारवाद की राजनीति को छोड़ना चाहते थे। ऐसे ही लोगों ने सक्रिय राजनीति को छोड़ गांव देहात का रास्ता अपनाया और मानवता को अपना मूल मन्त्र माना। यह लोग सत्ताधारियों से अलग थे। यह विलासिता से दूर आम आदमी के सुख दुःख के साथी बने। इन्होने इस्लाम का सही मायनों में प्रचार और प्रसार किया। यह फूट डालो नीति के बजाए सब को साथ लेकर चलने में विश्वास रखते थे। यह रेशम के वस्त्र न पहन कर मामूली ऊनी लबादे पहनते थे यह लोग हर वक़्त इबादत में लगे रहते।  अल्लाह और अल्लाह के रसूल की अच्छी बातों का ज़िक्र किया करते थे। घाटी में इस्लामिक कट्टर पंत के प्रभाव को कम करने में इन सूफ़ियों ने ज़हर मोहरा (Antidote) का काम किया। इन के दरवाज़े हर इंसान के लिए खुले थे। यह जाति बिरादरी, ऊंच नीच, काला गोरा, हिन्दू मुस्लिम से परे इंसानियत को तरजीह देते थे। कश्मीर में उन दिनों जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु भी हुआ करते थे। भारतीय साधू और पर्शियन सूफियों में बहुत समानता थी इसलिए यह यहीं के हो कर रह गए। इनकी सोच कश्मीरियत से बहुत मेल खाती थी। इसीलिए कश्मीर की घाटी में लोगों के बीच यह ऐसे मिल गए जैसे दूध में शकर। पर्शिया से आने वाले प्रमुख सूफ़ी थे सय्यद जलाल उद्दीन बुखारी, बुलबुल शाह, सैयद ताजुद्दीन, सैयद हुसैन सामनानी, शाह-ए-हमदान आदि। ऐसा कहा जाता है कि शाह-ए-हमदान इन सूफ़ी विद्वानो में सबसे प्रमुख थे और उनके द्वारा कश्मीर घाटी में इस्लाम का खूब प्रचार हुआ जिससे घाटी में पैंतीस हज़ार जैन और बौद्ध लोगों ने स्वेच्छा से इस्लाम धर्म अपनाया। ऐसा माना जाता है कि  शाह-ए-हमदान का मज़ार घाटी में बने अन्य सूफ़ी मज़ारों में सबसे प्राचीन है। 


wooden carving work@ Shah-e-Hamdan

 आज भी कश्मीर घाटी में कई सूफी संतों की मज़ारें हैं जहां सभी धर्मों के लोग जाते हैं। पुराने श्रीनगर में जाए के लिए सबसे अच्छा साधन है ऑटो रिक्शा, मैंने एक ऑटो वाले से बात की और वह मुझे पुराने श्रीनगर लेकर गया। मैं जानना चाहती थी कि इतने सैकड़ों सालों पुराना सूफिज़्म अब भी उसी स्वरुप में है या कि कुछ बदला है।  मेरी यह जुस्तुजू मुझे शाह-ए-हमदान का मज़ार ले पहुंची। इसे ख़ानका-ए-मौला भी कहते हैं। यह झेलम नदी के तट पर बसा है। मुझे ऑटो वाले ने बताया कि अभी पिछली साल जब श्रीनगर में बाढ़ आई तो जहां लोगों के घर एक एक मंज़िल तक डूब चुके थे वहीं शाह-ए-हमदान जो कि झेलम के तट पर ही बसा है उसे कुछ नहीं हुआ, यह चमत्कार है। 

KK@Shah-e-Hamdan

मैंने महसूस किया कि कश्मीर के लोगों में यहां के सूफी संतों के लिए अपार श्रद्धा है। हम डाउन टाउन की तंग गलियों को पार कर शाह-ए-हमदान पहुंच गए थे। दरगाह के बाहर लोग कबूतरों का दाना बेच रहे थे। हमने भी दाना ख़रीदा। मज़ार के बाहर इंडियन आर्मी का बंकर बना हुआ था। हाथ में रायफल लिए मुस्तैदी से तैनात जवान किसी अनहोनी की आशंका में रात दिन यहां खड़े रहते हैं। मेरी नज़र उस जवान से मिली मैंने एक सम्मान भरी मुस्कान से उस जवान को अभिवादन किया और दरगाह में चली गई। दरगाह में चहल पहल थी। मैंने इधर उधर नज़र दौड़ा कर जायज़ा लिया। कश्मीर के अलावा भारत भर में पाए जाने वाली दरगाहों पर सप्ताह के किसी एक दिन लोग ज़्यादा दिखाई देते हैं। या फिर बाहर से आने वाले श्रद्धालु दिख जाते हैं लेकिन यहां का मंज़र थोड़ा अलग था। यहां बाहर से आने वाले सिर्फ हम थे बाक़ी जितने भी थे सब लोकल लोग थे और जिस तरह वह दरगाह में आ जा रहे थे उससे लग रहा था कि यहां यह लोग रोज़ ही आते होंगे। श्राईन में जाना इनके जीवन का हिस्सा है। मैं लगभग 10-15 सीढ़ियां उतर कर दरगाह के प्रांगण में पहुंच गई। महिलाओं का अंदर जाना माना है। मैंने बाहर से ही ज़्यारत की।शाह-ए-हमदान की चौखट पर ज़ंजीरों से एक पीतल का पेन्डेन्ट जैसा लटका हुआ था जिसे आने जाने वाले पकड़ कर अपनी मुरादें मांग रहे थे। मैंने भी ख़ुदा के दरबार में हाथ उठा कर इस हसीन वादी में अमन और चैन के लिए अपनी अर्ज़ी लगा दी। शाह-ए-हमदान लकड़ी की नक्कारशी से बानी हुई एक खूबसूरत ईमारत है। इसके बिलकुल पीछे झेलम नदी बह रही है। ईमारत के प्रांगण में एक ऊंचे चबूतरे पर कबूतरों को दाना खिलाने की जगह है। इस प्राचीन ईमारत को बेहतर रखरखाव की ज़रूरत है। 


मेरा अगला पड़ाव है दस्तगीर साहेब। 
 दस्तगीर साहेब देखने के लिए मैं बहुत उत्साहित थी। यह श्राइन शाह-ए-हमदान से नज़दीक ही है। यह बाजार के बीचों बीच बनी हुई है। ऐसा माना जाता है कि इस दरगाह की ज़ियारत करने से सारे दुःख दर्द दूर हो जाते हैं,मन की मुराद पूरी होती है। इस दरगाह में स्त्री पुरुष दोनों जा सकते हैं। यहां फोटो खींचने के लिए इजाज़त लेनी होती है। मैं जब इस दरगाह में पहुंची तो वहां बहुत सारी कश्मीरी महिलाऐं जमा थीं। वह कागज़ की पर्चियों पर अर्ज़ियाँ लिख कर दरगाह की जालियों में बांध रही थीं। एक अजीब रुदन का माहौल था। महिलाओं के चेहरे आंसुओं से भीगे हुए थे। पूरा माहौल शोक से भरा हुआ था। इन दर्द में डूबी हुई तस्वीरों को क़ैद करने की हिम्मत मुझ मे न थी। 


An old Man Praying

यहां आकर मुझे अहसास हुआ कि कश्मीरी लोगों के जीवन में इन दरगाहों का इतना महत्व क्यों है। क्यूंकि इनके जीवन में दुःख है, अपनों से बिछड़ने का दर्द है, किसी के लौट कर आने का इन्तिज़ार है। 
आंसुओं के इस सैलाब को देख मेरा मन भारी हो गया और मैंने ख़ामोशी से वापसी की राह ली। यह था कश्मीर का एक और रंग … 
आप ऐसे ही बने रहिये मेरे साथ.…
हिमालय के अनेक रूपों में से एक के साथ... 
कल हम चलेंगे डाउन टाउन में बनी जामा मस्जिद देखने।
तब तक के लिए खुश रहिये और घूमते रहिये। 

आपकी हमसफर आपकी दोस्त 

डा ० कायनात क़ाज़ी 



Thursday, 12 November 2015

चश्मे, चिनार, गार्डेन्स और डल लेक आठ घंटों मे...

Kashmir day-2 

इस श्रंखला की पिछली पोस्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें : कश्मीर पहला दिन 

कश्मीर दूसरा दिन


Route Map-Places near Dal Lake


चश्मे, चिनार, गार्डेन्स और डल लेक आठ घंटों मे...

कश्मीर मे मेरा आज यह दूसरा दिन है। हमने फैसला किया कि आज श्रीनगर घूमा जाए। सुबह से लेकर शाम तक के आठ घंटों मे आधा श्रीनगर देखना है। श्रीनगर को हम दो हिस्सों मे बांट कर देख सकते हैं। एक हिस्सा जो डल लेक के आस पास बना हुआ है। जिसमे मुगलों के बनवाए हुए गार्डेन्स शामिल हैं और दूसरा हिस्सा डाउन टाउन श्रीनगर जिसे ओल्ड श्रीनगर भी कहते हैं। एक दिन मे पूरा श्रीनगर नही देखा जा सकता है। इसलिए पहले हम डल लेक के आस पास बने मुगल गार्डेन्स देखेंगे।


Chashme Shahi


श्रीनगर मशहूर है यहां पर बने गार्डेन्स के लिए। यह गार्डेन्स मुगल बादशाहों ने बनवाए थे। मुगलों को कश्मीर से बहुत लगाव था। मुग़लों ने कश्मीर पर लगभग 167 वर्षों तक राज किया। जिसकी छाप यहां पर खूब दिखाई देती है। मुगल मूल रूप से मध्य एशिया मे स्थित समरक़ंद और फ़र्गाना से आए थे। और जिस रेशम मार्ग से वे भारत मे दाखिल हुए थे वहीं नज़दीक ही कश्मीर वैली भी पड़ती थी। यह जगह मुगलों को खूब भा गई। क्योकि जिस जगह से व आए थे वहां की जलवायु से कश्मीर का मौसम मिलता जुलता था। मुगलों ने दिल्ली को अपनी सल्तनत तो बनाया पर कश्मीर से लगाव को दिल से ना निकाल पाए। दिल्ली मे रहते हुए उन्हें कश्मीर की वादियों का हुस्न अपनी ओर खींचता, और फिर दिल्ली की गर्मी भी मुगल बादशाहों से बर्दाश्त ना होती। इसलिए मुगलों ने कश्मीर को अपनी गर्मियों की आरामगाह के रूप मे विकसित किया। 


Chashm-e-Shahi


यहां मुगलों ने पर्शियन आर्किटेक्चर के हिसाब से टेरेस गार्डेन्स बनवाए। जिनमे मशहूर मुगल गार्डेन्स हैं; चश्मे शाही, निशात बाग, शालीमार बाग और परी महल। इन सभी गार्डेन्स की ख़ासियत है इन मे प्रयोग हुए प्राकृतिक जल स्त्रोत। ज़बरवान पहाड़ों के आंचल मे बने यह टेरेस गार्डेन्स सजाए गए हैं इनके बीच बहने वाली नहरों से। यह पानी के सोते अविरल बहते हुए इन बागों को सुंदरता प्रदान करते हैं और आगे जाकर डल झील मे मिल जाते हैं। यह पहाड़ी सोते जहां एक ओर इन बागों की सुदरता को गति प्रदान कर सजीव बनाते हैं वहीं डल झील मे मिलकर झील के पानी को निरंतर फ्रेश पानी पहुंचाते हैं। डल झील से होता हुआ यह पानी आगे जाकर झेलम नदी मे पहुंचता है। मुगलों द्वारा प्राकृतिक जल संसाधनों का इतना परभावी उपयोग सराहनीय है। यह अपने आप मे एक ईको सिस्टम है, जिससे ना जाने कितने अनगिनत जीव जन्तु, पशु पक्षी लाभान्वित हो रहे हैं। पर्शियन आर्किटेक्चर पर स्लामिक आर्किटेक्चर का प्रभाव  प्रमुखता से देखने को मिलता है।


Royal Spring


इस्लामिक आर्किटेक्चर क़ुरान मे वर्णित जन्नत के स्वरूप से बहुत परभावित है। क़ुरान मे जन्नत मे बने ऐसे बागों का ज़िक्र है जिनके बीच से नहरें बह रही होंगी। मुग़ल बादशाह धरती पर ऐसे ही स्वर्ग की रचना करना चाहते थे। इसीलिए मुग़ल वास्तुकारों ने भी ऐसे ही बागों की रचना करने की कोशिश की है। मुग़ल गार्डेन्स की वास्तुकला के यह नमूने कश्मीर के अलावा कई अन्य स्थानों मे भी पाए जाते हैं। आगरा के ताज महल मे बने बाग भी ऐसी ही वास्तुकला पर आधारित हैं। हम आज इन आठ घंटों मे इन्ही सारे स्मारकों को देखेंगे। हम सबसे पहले चश्मे शाही देखने गए। चश्मे शाही का अर्थ होता है -“शाही झरना चश्मे शाही मुग़ल गार्डन्स में सबसे पहले बना था। कहते हैं इस गार्डन को मुग़ल मलिका नूर जहां के भाई आसिफ ख़ान ने बनाया था। इसे रॉयल स्प्रिंग भी कहा जाता है। ज़बरवान पर्वत श्रंखला के दामन में तीन टेरेस में बना यह स्मारक बुलवर्ड रोड से चार किलोमीटर दूर स्थित है। यहां के स्थानीय लोग मानते हैं कि इस झरने में प्राकृतिक स्वास्थवर्धक तत्व मिले हुए हैं। यह एक खूबसूरत बाग है जिसके बीच मे से झरना बह रहा है। 


Pari Mahal




Pari Mahal




यहां पर लोग कश्मीरी ड्रेस मे फोटो खिंचवा रहे थे। चश्मे शाही के गेट से ही दाईं ओर से परी महल को रास्ता जाता है। चश्मे शाही से लगभग 3 किलोमीटर दूर पहाड़ की चड़ाई पार करने के बाद परी महल बना हुआ है। इसका निर्माण मुग़ल शहज़ादे दारा शिकोह ने करवाया था। और यह बात बहुत कम लोग जानते होंगे कि मुग़ल शहज़ादे दाराशिकोह को सितारों और ग्रहों में बहुत दिलचस्पी थी। और यह स्मारक ज्योतिष और खगोल विज्ञान के स्कूल के लिए बनाया गया था। ऊंचाई पर बने होने के कारण इसका प्रयोग पूरे श्रीनगर पर नज़र रखने के लिए भी किया जाता था। यह दुर्ग 12 टेरेस मे बना हुआ ही। यहां से पूरी डल लेक दिखाई देती है।


Panoramic View of Dal Lake from Pari Mahal


परी महल से वापसी मे हम ने बटॅनिकल गार्डेन देखा। इस गार्डेन को हॉर्टिकल्चर डिपार्टमेंट ने बनवाया है। यहां पर आप बोटिंग भी कर सकते हैं। बच्चों के खेलने के लिए यहां झूले भी बनवाए गए हैं।
अभी दोपहर का समय हुआ है, चश्मे शाही, परी महल और बटॅनिकल गार्डेन एक दिशा मे ही पड़ते हैं और एक दूसरे से बहुत नज़दीक हैं। हम वापस डल झील पर आ गए हैं। यहां पर वॉटर स्पोर्ट्स की भी व्यवस्था है। आप डल झील मे वॉटर स्कूटर भी चला सकते हैं। यह राइड घाट से लेकर डल झील के बीच मे बने चार चिनार टापू तक की होती है। जिसके लिए हमने 600 रुपय अदा किए। हमारा अगला पड़ाव है निशात गार्डेन जिसे निशात बाग भी कहते हैं।


Nishat Bagh


 निशात बाग़ फ़ारसी का शब्द है जिसका अर्थ होता है, एक ऐसा बाग़ जहां जाकर ख़ुशी मिले, और वास्तविकता में भी वहां जाकर हमें ख़ुशी का अनुभव हुआ भी। इस बाग़ को मुग़ल मलिका नूर जहां के बड़े भाई अब्दुल हसन आसिफ खान ने सन् 1634 में मुग़ल बादशाह जहांगीर के काल में बनवाया था। निशात बाग़ देखने के लिए आपको टिकट लेना होगा। यहां पर स्थानीए लोगो की बहुत भीड़ है। कश्मीरी लोग गर्मियों के 6 महीनों को बहुत एंजाय करते हैं। सभी पिकनिक के मूड मे नज़र आते हैं। कश्मीरी लोग निशात गार्डेन मे बने बड़े-बड़े बग़ीचों मे पूरे परिवार के साथ पिकनिक माना रहे थे। कश्मीरी महिलाऐं अपने घरों से ही खाने पका कर लाई थीं और साथ ही स्टोव भी लाई थीं। जिन पर खाना गर्म करके खिलाया जा रहा था। 


Kashmiri girl@Nishat Bagh


बच्चे निशात बाग़ मे बनी नहरों मे पानी से खेल रहे थे। पानी के इन छोटे बड़े होज़ मे बच्चों को पानी से अटखेलियां करता देख कर मुझे अहसास हुआ कि यह तो उस ज़माने के वॉटर पार्क रहे होंगे। जिनको मुगलों ने अपने सैर सपाटे के लिए बनवाया होगा।
निशात बाग के नज़दीक ही एक शॉपिंग एरिया है जहां पर कश्मीरी हैंडीक्राफ्ट और खाने पीने की बहुत-सी दुकाने हैं।
अगर आप डल लेक मे सनसेट की तस्वीर लेना चाहते हैं तो निशात बाग़ के सामने बने घाट से शाम के वक़्त शिकारा राइड लें। यहां से सनसेट का नज़ारा बहुत खूबसूरत आता है।

इस वक़्त शाम होने को है और हमें अभी शालीमार गार्डेन भी देखना है। निशात गार्डेन से लगभग 4 किमी की दूरी पर शालीमार गार्डेन है। इस गार्डेन को मुग़ल बादशाह जहांगीर ने अपनी बेगम नूरजहां को खुश करने के लिए सन् 1619 में बनवाया था। यह भी एक टेरेस गार्डेन है जोकि पार्शियन वास्तुकला के हिसाब से बना हुआ है लेकिन इस गार्डन में सिर्फ तीन टेरेस हैं। शालीमार बाग़ को मुग़ल वास्तुकला का बेहतरीन नमूना कह सकते हैं। पहला गार्डन आम लोगों के लिए बनाया गया था। वहां पर एक संगेमरमर की ईमारत भी है जिसे दीवाने आम कहते हैं। इस गार्डन में भी बीच से नहर बह रही है। इसके ऊपर वाले टेरेस पर दीवाने खास है कहा जाता है की यहां तक सिर्फ ख़ास लोग ही जाया करते थे। तीसरे टेरेस के साथ ही जनानखाना लगा हुआ है। शाहजहां ने यहां एक काले मार्बल की बारादरी भी बनवाई थी। मैं जब बारादरी में पहुंची तो कहीं से बड़ी ही मीठी बांसुरी की आवाज़ आ रही थी। थोड़ा तलाशने पर पाया कि बारादरी के एक कोने में दो कश्मीरी युवक अपनी धुन में खोए बांसुरी के सुर छेड़ रहे हैं। यहां चारों तरफ चिनार के ऊंचे ऊंचे पेड़ हैं। 


Spring@Nishat Bagh



Shalimar Garden


कोई कोई पेड़ तो 400 साल पुराना है। इस बाग़ की ख़ूबसूरती शब्दों में ब्यान नहीं की जा सकती है। इस जगह की खूबसूरती को कैमरे में क़ैद करने के बाद भी मेरा मन कर रहा था कि काश के मैं इसका एक छोटा-सा टुकड़ा अपने साथ ले जा सकती। मैंने ज़मीं पर पड़े ज़र्द चिनार के पत्ते को उठा कर अपनी किताब में रख लिया और सोचा कि अपने साथ यहां की कुछ यादें तो मैं लेजा ही सकती हूं। शालीमार गार्डन के बाहर भी काफी सारी दुकानें हैं जहां से आप सोविनियर खरीद सकते हैं। मैंने भी पश्मीना की शॉल खरीदी जिस पर चिनार की पत्तियां बनी हुई थीं। 


Chinar leafs


आज का दिन मुग़लों वाले कश्मीर को देखने में कब गुज़र गया पता ही नहीं चला। पर यह तो कश्मीर का सिर्फ एक रंग है। अभी बहुत कुछ बाक़ी है। कल हम जाएंगे डाउन टाउन कश्मीर। हमारे देश में आए सूफ़ीज़्म की जड़ें तलाशने।

तब तक के लिए खुश रहिये, घूमते रहिये।

और ऐसे ही बने रहिये मेरे साथ.

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त


डा० कायनात क़ाज़ी