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कुछ पंक्तियां इस ब्लॉग के बारे में :

प्रिय पाठक,
हिन्दी के प्रथम ट्रेवल फ़ोटोग्राफ़ी ब्लॉग पर आपका स्वागत है.….
ऐसा नहीं है कि हिन्दी में अच्छे ब्लॉग लिखने वालों की कमी है। हिन्दी में लोग एक से एक बेहतरीन ब्लॉग्स लिख रहे हैं। पर एक चीज़ की कमी अक्सर खलती है। जहां ब्लॉग पर अच्छा कन्टेन्ट है वहां एक अच्छी क्वालिटी की तस्वीर नहीं मिलती और जिन ब्लॉग्स पर अच्छी तस्वीरें होती हैं वहां कन्टेन्ट उतना अच्छा नहीं होता। मैं साहित्यकार के अलावा एक ट्रेवल राइटर और फोटोग्राफर हूँ। मैंने अपने इस ब्लॉग के ज़रिये इस दूरी को पाटने का प्रयास किया है। मेरा यह ब्लॉग हिन्दी का प्रथम ट्रेवल फ़ोटोग्राफ़ी ब्लॉग है। जहाँ आपको मिलेगी भारत के कुछ अनछुए पहलुओं, अनदेखे स्थानों की सविस्तार जानकारी और उन स्थानों से जुड़ी कुछ बेहतरीन तस्वीरें।
उम्मीद है, आप को मेरा यह प्रयास पसंद आएगा। आपकी प्रतिक्रियाओं की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।
आपके कमेन्ट मुझे इस ब्लॉग को और बेहतर बनाने की प्रेरणा देंगे।

मंगल मृदुल कामनाओं सहित
आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी

Thursday 16 October 2014

अंगना की चिड़िया


अंगना की चिड़िया


आज विश्व गौरय्या दिवस है। जान कर थोडा मन बेचैन हुआ कि जो कल तक हमारे घर के आँगन में फुदकने वाली छोटी सी चिड़िया थी वो आज न जाने कहाँ गायब हो गई है। हम जो बचपन में सुबह होने का अहसास चिड़ियों की आवाज़ से लगते थे आज वो मधुर गीत कहीं खो से गए हैं। शायद हमारे बच्चे ये कभी जान ही नहीं पाएँगे कि चिड़ियों का कलरव होता क्या है? वो भी हमें गूगल पर सर्च करना होगा। गौरय्या हमारे जीवन का 1 अंग हुआ करती थी जब सुबह-सुबह माँ आंटा गूंधते हुए,आंटे की चिड़िया बना कर बच्चे को खेलने देदेती थी और कभी वक़्त होने पर उस आंटे की चिड़िया को सेंक भी दिया करती थी। बच्चा उलट पलट कर उस आंटे की चिड़िया से घंटों खेलता रहता था।वो आज जैसे सपना सा जान पड़ता है

बचपन में हमारे घर के ऊँचे ऊँचे दालानों में गौरय्या अपना घोंसला बनाया करती तो बस हमारी ख़ुशी का ठिकाना न होता। हम पूरे घर में सब को बता देते की गौरय्या घोंसला बना रही है। अब्बू की सख्त हिदायत होती कि कोई उनको डिस्टर्ब नहीं करेगा। आगे वो हमें डरा भी देते " अगर तुम लोगों ने ज्यादा शोर मचाया तो गौरय्या अपना घर यहाँ नहीं बनाएगी, और तो और बच्चे भी फिर कहीं और जाकर ही देगी।" और अब्बू का ये फार्मूला काम कर जाता। हम घोंसला बन जाने तक पूरी शराफत का सुबूत देते और दूर दूर से चिड़िया और चिरोंटे को 1-1 तिनका लाकर घोंसला बनता देखते।

दिन हफ़्तों में बदलते जाते पर चिड़िया के बच्चे अण्डों से न निकलते। हम रोज़ अब्बू की जान खाते " बच्चे कब निकलेंगे?" अब्बू कहते सब्र करो बच्चों, 1 दिन बच्चे ज़रूर निकलेंगे ।अभी चिड़िया अण्डों को सहती है| तुम चिड़िया के दाने और पानी का धयान रखो।

और 1फिर दिन लम्बे इन्तिज़ार के बाद हमें चिड़िया के छोटे बच्चों की आवाज़ सुनाई देती| हमारी ख़ुशी का ठिकाना न रहता।समझना मुश्किल होता की कौन ज्यादा चेह चाहता था हम या चिड़िया के बच्चे। हम पूरे मोहल्ले में जाकर 1-1 को बता देते की हमारे घर पर चिड़िया ने बच्चे दिए हैं। आप देखने ज़रूर आना। यहाँ तक की फेरी वाले और कुल्फी वाले तक को न्योता चला जाता।

गर्मियों की बोर दोपहर भले ही बड़ों के लिए उबाऊ होती थी पर हमारे लिए तो बहुत मज़ेदार होती थी।बच्चों की टोली दालान में ही डेरा जमाए रहती ।अम्मी बेचारी नाहक़ ही हलकान हुए जातीं कि थोडा दोपहर में सो जाओ, पर हमारी आँखों में नींद कहाँ?

अब्बू आते जाते आगाह किया करते" कोई दालान का पंखा न चला देना। चिड़िया को बच्चों के लिए खाना लेने बार बार जाना होता है।


उन दिनों घर में चर्चा का मुख्य विषय भी चिड़िया की फॅमिली ही होती थी। वो भी क्या दिन थे हमें खुश रखने के लिए किसी प्ले स्टेशन की ज़रुरत नहीं होती थी।

हम तो उन नन्हे चिड़िया के बच्चों को देख देख कर जिया करते थे ।घर में आए मेहमान को हाथ पकड़ कर सबसे पहले चिड़िया के घोंसले और उनके बच्चों के दर्शन करवाए जाते तब जाकर मेहमान कहीं साँस ले पाता ।

मैं और मेरी बड़ी बहन हमारे बावर्चीखाने से झोली में भर भर के बिरयानी के महंगे बांसमती चावल चिड़ियों की दावत में उड़ा देते। गर्मियों की वो सुहानी शामें भुलाए नहीं भूलतीं जब हमारी छत पर चिड़ियों के परे के परे दाना चुगने आया करते। हम दाना डाल कर कोने में खामोश खड़े हो कर चिड़ियों के आने का इन्तिज़ार करते और अगर किसी ने ज़रा सी आहत की तो चिड़ियाँ फुर्रर्र से उड़ जातीं और हम उनके आने का दुबारा इन्तिज़ार करते।


चिड़ियाँ झुंड में आतीं और पूरा का पूरा दाना कुछ ही देर में साफ़ कर जातीं।उनको खाता देख मन को जो सुकून मिलता वो शब्दों में बयां नहीं की जा सकती है ।

चिड़ियों के लिए पानी का बर्तन रोज़ धो कर पानी भरने की ज़िम्मेदारी उन दिनों मेरी हुआ करती थी। मैं बिना कोताही के बड़ी तन्मयता से ये काम करती।

कितनी ही घायल चिड़ियों की नैटिन्गेल में खुद बनी हूँ ।उनको उठा कर लाना,उनके ज़ख्म साफ़ करना

और ज़ख्म साफ़ करते करते आँसू बहाना। आज भले ही इस बात पर कोई विश्वास न करे पर उस वक़्त उनका दर्द मुझे खुद महसूस होता था। बाल मन में कितनी करुणा होती है इसका अंदाज़ा हम इसी बात से लगा सकते हैं।

और अगर खुदा न ख्वास्त: ज़ख़्मी चिड़िया इन्तिकाल फरमा जाए तो फिर पूरे कफ़न दफ़न का इन्तिज़ाम करना मेरा फ़र्ज़ होता। उस दिन सोग में टीवी नहीं देखा जाता । चिड़िया की मौत हमारे लिए राष्ट्रीय शोक जैसी होती। और जब ये शोक खाना न खाने तक पहुँचता तब अम्मी का सब्र जवाब देजाता और हमारी ताजपोशी की नौबत आजाती। हमेशा की तरह अब्बू बिचारे बीच में आकर सीज फायर करवाते, और हमे मना कर खाना खिलवाते।

अलबत्ता कुछ दोस्त तो चिड़िया की मौत पर पुरसा भी करने आजाते।

पहले चिड़ियाँ हमारे गीतों का हिस्सा भी होती थीं। एक मशहूर गीत है "बाबुल तेरे अंगना की मैं तोऐसी चिड़िया रे ........."

अब न तो वो आंगन रहे,

न वो चिड़िया रही

और न ही बाबुल ही रहे .........

बिछड़े सभी बरी- बरी .............

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