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कुछ पंक्तियां इस ब्लॉग के बारे में :

प्रिय पाठक,
हिन्दी के प्रथम ट्रेवल फ़ोटोग्राफ़ी ब्लॉग पर आपका स्वागत है.….
ऐसा नहीं है कि हिन्दी में अच्छे ब्लॉग लिखने वालों की कमी है। हिन्दी में लोग एक से एक बेहतरीन ब्लॉग्स लिख रहे हैं। पर एक चीज़ की कमी अक्सर खलती है। जहां ब्लॉग पर अच्छा कन्टेन्ट है वहां एक अच्छी क्वालिटी की तस्वीर नहीं मिलती और जिन ब्लॉग्स पर अच्छी तस्वीरें होती हैं वहां कन्टेन्ट उतना अच्छा नहीं होता। मैं साहित्यकार के अलावा एक ट्रेवल राइटर और फोटोग्राफर हूँ। मैंने अपने इस ब्लॉग के ज़रिये इस दूरी को पाटने का प्रयास किया है। मेरा यह ब्लॉग हिन्दी का प्रथम ट्रेवल फ़ोटोग्राफ़ी ब्लॉग है। जहाँ आपको मिलेगी भारत के कुछ अनछुए पहलुओं, अनदेखे स्थानों की सविस्तार जानकारी और उन स्थानों से जुड़ी कुछ बेहतरीन तस्वीरें।
उम्मीद है, आप को मेरा यह प्रयास पसंद आएगा। आपकी प्रतिक्रियाओं की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।
आपके कमेन्ट मुझे इस ब्लॉग को और बेहतर बनाने की प्रेरणा देंगे।

मंगल मृदुल कामनाओं सहित
आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी

Saturday, 31 December 2016

एक दिन डल लेक पर तैरते हाउस बोट पर....

एक दिन डल लेक पर तैरते हाउस बोट पर....






दोस्तों कश्मीर की वादियों में दिन गुज़ारना शायद सब को पसंद आता होगा और इस यात्रा का एक और बड़ा आकर्षण है वह है हाउस बोट में ठहरना। अगर हिंदी सिनेमा की सत्तर के दशक की फिल्मों की बात करें तो उन फिल्मो में अक्सर कश्मीर की वादियों की शूटिंग देखने को मिलती थी और जिसमे हाउस बोट मुख्य आकर्षण होती थी। फिर अस्सी का दशक आया और कश्मीर की वादियों में खूबसूरत नज़रों की जगह हिंसा ने ले ली और सैलानियों ने इस हसीं धरती की और आने का सपना कहीं बिसरा दिया। फिर भी एक कसक दिल के किसी कोने में हमेशा रहती थी की एक बार कश्मीर जाया जाए। चलो अच्छी ख़बर यह है कि इन अलगाववादी नेताओं की समझ में भी आ गया है कि आए दिन होने वाले बंद और हिंसा से यहाँ के लोगों का रोज़गार ठप्प हो रहा है.इसलिए इन लोगों ने भी अब यह पहल की है कि वादी में टूरिज्म को बढ़ावा दिया जाए।  सो मैंने सोचा की मौक़ा अच्छा है क्यों न इसी बहाने कश्मीर की वादियों में कुछ वक़्त गुज़ारा जाए। कश्मीर के मेरे प्रवास का सफरनामा आप यहाँ अलग से पढ़ सकते हैं।

चश्मे, चिनार, गार्डेन्स और डल लेक आठ घंटों मे…


फ़िलहाल मैं आपको लिए चलती हूँ 1 दिन हाउस बोट में आराम करने को। मैंने अपने एक सप्ताह के प्रवास में हाउस बोट के लिए आखरी के दिन रखे हैं। क्योंकि हाउस बोट में रह कर मैं सिर्फ आराम करना चाहती हूँ। तो पहले कश्मीर की वादियों में घूम कर थोड़ा थक जॉन फिर आराम किया जाए।


श्रीनगर में हाउस बोट दो जगह देखी जाती हैं एक डल लेक पर और एक नागिन लेक पर। बुलावार्ड रोड डल झील के सहारे सहारे चलता है। डल झील का विस्तार 18 किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। इस झील के तीन तरफ पहाड़ हैं। ऐसा माना जाता है कि अगर कश्मीर एक ताज है तो डल झील उस ताज में जड़ा नगीना है। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि कोई कश्मीर देखने आए और डल झील देखे बिना वापस चला जाए। डल झील शुरू होती है डल गेट से। यहां पर झील थोड़ी पतली है और उसके किनारों पर कई सारे होटल बने हुए हैं। बुलावार्ड रोड पर क़तार से होटल बने हुए हैं और साथ ही एक भरा-पूरा मार्केट भी है। कश्मीरी हेन्डीक्राफ्ट से सजी हुई दुकानें बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करती हैं। डल गेट से शुरू होकर डल झील आगे जाकर एक विशाल जलराशि मे बदल जाती है। डल गेट से ही एक तरफ बुलावार्ड रोड और दूसरी तरफ क़तार मे फेली हाउस बोट पर्यटकों का स्वागत करती हैं। कश्मीर जाने से पहले ज़रूरी नहीं की आप हाउस बोट पहले से बुक करें।


आप जैसे ही बुलावार्ड रोड पर बने घाटो पर पहुंचेंगे कितने ही सारे हाउस बोट के मालिक आप को घेर लेंगे। अब आपके पास यह चॉइस है की आप पहले जा कर एक नज़र हाउस बोट देख लें फिर बात करें। मेरे राय है की आप सौदा करने में जल्दबाज़ी न करें और दो चार हाउस बोट देखने के बाद मोल भाव करने के बाद ही फैसला करें। यह हाउस बोट वाले अपनी शिकारा में बिठा कर आपको हाउस बोट दिखाने ले जाएंगे। अगर आप चहलपहल पसंद करते हैं तो डल  लेक की हाउस बोट में ठहरें और अगर ख़ामोशी और सुकून की तलाश में हैं तो नागिन लेक जाएं। हमने दो चार हाउस बोट देखने के बाद एक हाउस बोट पसंद की और अगला एक दिन एक रात वहां गुज़ारा।


आप इसे पानी पर तैरता घर मान लीजिये। यह हाउस बोट लकड़ी की बनी होती हैं जिन पर बारीक़ नक्कारशी का काम किया जाता है। इनमें बैडरूम, ड्राइंग रूम और डाइनिंग रूम की व्यवस्था होती है। अंदर से यह बहुत कोज़ी होती हैं। कश्मीरी क़ालीन से सजी हुई। इन हाउस बोट के पीछे ही इनके मालिकों का घर होता है इसलिए आप अगर सोलो भी ट्रेवल कर रही हैं तो सुरक्षा की कोई चिंता नहीं।


कहीं कहीं दो हॉउस बोट मिला कर बीच के हिस्से को ओपन में बैठने के लिए छोटे से रेस्टोरेंट का रूप दे दिया जाता है। जहाँ बैठ कर आप शाम की चाय का आनंद ले सकें।

यह हाउसबोट केरल के बैक वाटर्स में पाई जाने वाली हाउस बोट से अलग है। वो हाउस बोट आकर में इनसे काफी बड़ी और मज़बूत होती हैं। शाम को जब झील पर रात उतरने लगती है तो सारी हाउस बोट पीली रोशनियों में नहा जाती हैं। इन रोशनियों की परछाईं डल लेक के पानी को और भी खूबसूरत बना देती है।


सुबह सुबह फूल बेचने वाला हर हाउस  बोट पर आकर फूल देकर जाता है। फूलों से सजी उसकी शिकारा डल  लेक पर तैरती बहुत सुदंर  लगती है।

यह आकर्षण एक रात के लिए काफी है, क्योंकि इसके कुछ ड्रा बैक भी हैं। यह हाउस बोट डल लेक में एक जगह खड़ी रहती हैं और इनसे निकलने वाली सीवेज का कोई पुख़्ता बंदोबस्त नहीं है इसलिए डल के पानी से बदबू आती है।  तो दोस्तों कैसा लगा यह अनुभव।ज़रूर बताइयेगा।


फिर मिलेंगे दोस्तों, भारत दर्शन में किसी नए शहर की यात्रा पर, तब तक खुश रहिये, और घूमते रहिये,

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी

Tuesday, 20 December 2016

गुजरात से लाइव: कहानी नमक की....

गुजरात से लाइव: कहानी नमक की....




हम जैसे-जैसे कच्छ की और बढ़ रहे हैं हवा में नमक की मौजूदगी महसूस होने लगी है। हम समुन्दर से बहुत दूर नहीं हैं। हमारे उलटे हाथ की तरफ कुछ मीलों के फासले पर समुद्री रेखा शुरू होती है। सड़क के आस पास नमक के मैदान दिखने लगे हैं जहाँ बड़ी-बड़ी क्यारियां बना कर उनमे पानी को सुखाया जा रहा है। ये बड़ी प्राचीन पद्धति है। भारत को ऐसे ही नहीं दुनिया का तीसरे नंबर का नमक के उत्पादन में अग्रणी माना जाता। यहाँ की भूमि में नमक की मात्रा की अधिकता होती है इसीलिए कुछ और पैदा नहीं हो सकता। यहाँ के किसानों ने इसका तोड़ निकल और नमक की ही खेती करनी शुरू कर दी। लिटिल रण ऑफ़ कच्छ में एक जगह है जिसे खारा घोड़ा कहा जाता है। यह गुजरात के  सुरेन्द्रनगर ज़िले में आता है।


यहाँ अंग्रेजों ने नमक का उत्पादन शुरू किया जिसे बाद में हिंदुस्तान साल्ट लिमिटेड ने आगे बढ़ाया। यहाँ 23,000 हज़ार एकड़ में नमक का उत्पादन किया जाता है। जबकि इस छोटे से गांव की जनसंख्या केवल 10 हज़ार है। पूरा का पूरा गांव नमक के काम में लगा हुआ है। इस गांव में ब्रिटिश साम्राज्य के कुछ अंश अभी भी दिखाई देते हैं। जैसे भारत का पहला शॉपिंग मॉल यहीं बना। सन् 1905 में सर बुल्कले ने इस मॉल को बनवाया। आज भी यहाँ 8-10 दुकाने बाकी हैं जो कि गांववालों की ज़रूरत की चीजों की पूर्ति एक ही छत के नीचे करती हैं।


मुझे गांव कुछ ख़ाली-ख़ाली सा लगा मालूम किया तो पता चला की सभी लोग पास ही बनी साल्ट फैक्ट्री में काम करने गए हुए हैं। हम ने नमक की फैक्ट्री का रुख किया। हम जैसे जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे हमें नमक के ऊँचे ऊँचे ढ़ेर दिखने लगे थे। यह ढ़ेर सफ़ेद और भूरे रंग के थे।




खेतों में पानी को जमा करके उस पानी को धुप से प्राकृतिक तरीके से सुखाने जाता है। जब पानी वाष्प बन कर उड़ जाता है तो ऊपर ऊपर नमक की एक मोटी परत बन जाती है जिसे सावधानी से उठा लिया जाता है। खेतों से जमा किया यह नमक यहाँ फैक्ट्री में लाकर ऊँचे ऊँचे ढ़ेरों में जमा किया जाता है जिसे कुछ दिन के लिए ऐसे ही छोड़ दिया जाता है।

बाद में जेसीबी की मदद से यह नमक, जिसमे की अभी बड़ी मात्रा में मिट्टी के अंश मौजूद हैं को फैक्ट्री के अंदर प्रोसेसिंग के लिए लेकर जाया जाता है। जहाँ मशीनों से नमक की धुलाई होती है और उस में से अशुद्धियों को निकाला जाता है।



नमक साफ़ होने के बाद यह अंदर एक बड़े हॉल में पैकिंग के लिए पहुँचता है जहाँ पर बहुत सारे लोग बैठ कर मेनुअल तरीके से इसकी पैकिंग करते हैं। यहाँ पुरा का पूरा परिवार पैकिंग के काम में लगा होता है।

तो क्यों दोस्तों है न मज़ेदार नमक की कहानी।



फिर मिलेंगे दोस्तों, भारत दर्शन में किसी नए शहर की यात्रा पर, तब तक खुश रहिये, और घूमते रहिये,

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी

Thursday, 15 December 2016

रंण उत्सव-2016:रंण उत्सव तो एक बहाना है, गुजरात मे बहुत कुछ दिखाना है....

रंण उत्सव-2016

रंण उत्सव तो सिर्फ़ एक बहाना है,  गुजरात मे बहुत कुछ दिखाना है....


यह लाइन किसी ने सही कही है, क्यूंकि रंण उत्सव के बहाने ही मैने बहुत कुछ ऐसा देख डाला जिसे देखने शायद अलग से मैं कभी आती ही नही गुजरात। इस बार मौक़ा था रंण उत्सव मे जाने का। चार दिन की मेरी यह तूफ़ानी यात्रा अपने मे समेटे थी बहुत कुछ अनोखा। अहमदाबाद से सुरेन्द्रनगर, सुरेन्द्रनगर से गाँधी धाम और गाँधी धाम से धोर्ड़ो गाँव जहाँ कि रंण उत्सव मनाया जाता है।  मैं पहले ही बता दूं कि इनमे से कोई भी जगह आस पास नही है लेकिन गुजरात के हाई वे बहुत अच्छे हैं कि आप बिना किसी तकलीफ़ के लंबी रोड यात्रा कर सकते हैं।



चलिए तो फिर यात्रा शुरू करते हैं। मैं अहमदाबाद पहुँच कर निकल पड़ी सुरेन्द्रनगर में वाइल्ड एस सेंचुरी  देखने।  क्या है खास इस सेंचुरी मे? यही सवाल मेरे मन मे भी उठा था।  पाँच हज़ार वर्ग किलोमीटर  मे फैला यह वेटलैंड किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।  इसे लिट्ल रंण ऑफ कच्छ कहते हैं।  यह जगह इसलिए मशहूर है कि पूरी दुनिया मे सिर्फ़ यहीं वाइल्ड एस पाए जाते आईं।  वाइल्ड एस यानि कि जंगली गधे। कहते हैं की यहाँ लगभग 3000 वाइल्ड एस हैं। इसके अलावा यहाँ कई अन्य जानवर भी पाए जाते हैं।




मुझे इस जगह की सबसे अच्छी बात यह लगी कि यहां तक पहुँचना बहुत आसान है। मीलों तक फैला वेटलैंड जिसे बड़ी आसानी से जिप्सी मे बैठ कर देखा जा सकता है। सबसे अच्छी बात तो यह है कि यह सेंचुरी बर्ड वाचिंग के लिए बहुत अच्छी है।  मेरी पिछली गुजरात की यात्रा में हम फ्लैमिंगो ढूंढते हुए मांडवी मे कितनी दूर तक समुद्र तट पर चले थे और फिर भी हमे फ्लैमिंगो नही मिले थे लेकिन यहाँ इस सेंचुरी मे जगह जगह वॉटर बॉडी बनी हुई हैं जहां फ्लैमिंगो के झुंड के झुंड देखने को मिल जाते हैं वो भी बड़ी आसानी से। बस ज़रूरत है तो  एक अदद ज़ूम लेंस की, और वो भी कम से कम 400 या 600 mm का ज़ूम लेंस ।




वाइल्ड एस  थोड़े शर्मीले होते हैं अपने नज़दीक गाड़ियों को देख कर झट से झाड़ियों मे घुस जाते हैं। हमे घूमते-घूमते शाम हो गई। सामने सूरज अस्त की ओर चल पड़ा था। यहाँ की दलदली मिट्टी नमक की अधिकता के कारंण बंजर है। लेकिन देखने मे सुंदर लगती है। दूर तक फैला मैदान और सुंदर सनसेट वहीं रुकने को मजबूर कर रहा था। यह दिसंबर का महीना है लेकिन यहाँ ठंड नही है। हवा अच्छी लग रही है। कुछ देर ठहर के सनसेट का मज़ा लिया और फिर चल पड़े अपने डेरे की ओर।

यहीं पास ही एक रिज़ॉर्ट मे ठहरने की ववस्था की गई है। पहला दिन ख़त्म होने को आया। आज चौदहवीं की तो नही लेकिन 12ह्वीं की रात है इसलिए चाँद आसमान मे कुछ ज़्यादा ही चमक रहा है। अभी इसे और चमकना होगा। चाँदनी रात मे रंण के सफेद रेगिस्तान को देखने लोग खास तौर पर पूर्णिमा के दिन आते हैं। यही वहाँ का मुख्य आकर्षण है।

दूसरा दिन थोड़ा लंबा होने वाला था हमे सुरेन्द्र नगर से गाँधी धाम की यात्रा तय करनी है। यह यात्रा कुल 206 किलो मीटर की होने वाली है। रास्ते मे हम कई गाँव देखेंगे। ऐसे गाँव जिनमे छुपा है इतिहास। कच्छ की प्राचीन हस्त कला और वैभव का इतिहास। यहीं पास ही एक गाँव है जिसका नाम है खारा घोड़ा। कहते हैं इस गाँव मे 111 साल पुराना शॉपिंग माल है। जिसे अँग्रेज़ों ने 1905 मे बनवाया था। आज यहाँ कुछ दुकाने मौजूद हैं जोकि गाँव वालों की ज़रूरत का सामान एक ही छत के नीचे उपलब्ध करवाती है। इस गाँव से थोड़ा आगे बढ़ते ही हमे नमक की खेती होते दिखने लगती है। यह पूरा प्रोसेस देखना भी एक अनुभव है। नमक कैसे बनता है इसकी कहानी तफ्सील से जानने के लिए यहाँ क्लिक करें:






अभी तक मुझे गुजरात मे आए हुए 2 दिन हो चुके हैं लेकिन मैने भूंगे नही देखे। भूंगे यानी के मिट्टी के बने गोल घर जोकि कच्छ के ग्रामीण जीवन की पहचान है। मेरी इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य था कि मैं कच्छ मे रहने वाले जनजातीय जीवन को देख पाऊं।  इसीलिए मैने इस बार गाँवों की यात्रा का मन बनाया। मेरा अगला पड़ाव होगा ऐसे ही एक गांव। जहाँ मैं कच्छी कला से जुड़े समुदायों से मिल सकूँ। हम भुज के बहुत नज़दीक हैं और भुज के नज़दीक ही एक गाँव पड़ता है जिसका नाम है सुमरासार शैख़। इस गाँव की एक ख़ासियत है। यहाँ कच्छ मे किए जाने वाली कढ़ाई के काम की सबसे बेहतरीन क़िस्म यहीं देखने को मिलती है। इस गाँव  मे कई NGO और संगठन यहाँ की कला के संरक्षण के लिए काम करते हैं। मैं धूल उड़ाती कच्ची सड़कों को पार करते हुए ऐसी ही एक जगह पहुँच गई हूँ। यह कला रक्षा केंद्र है जहाँ सूफ कला के संरक्षण के लिए कार्य किया जाता है।






यहाँ मिट्टी के गोल घर मुझे आकर्षित करते हैं जिनके बीचों बीच मे एक छोटा-सा आँगन है जहाँ काले लिबास मे कुछ महिलाएँ कढ़ाई का काम कर रही हैं। यह महिलाएँ मारू मेघवाल और रबाड़ी जनजाति से संबंध रखती है और सिंगल धागे से कपड़े पर त्रिकोण आकर की ज्योमित्री डिज़ाइन की कढ़ाई करती हैं। यह बेहद नफीस और बारीक कढ़ाई है। जिसे बड़ी महारत से किया जाता है। कहते हैं इस कला को करने वाले की ऑंखें जल्द ही साथ छोड़ जाती हैं। यह कलाकार कपडे पर उलटी तरफ ताने बानों को उठा कर कढ़ाई करती हैं और सीधी तरफ डिज़ाइन बनती जाती है। इस जनजाति का संबंध पाकिस्तान से है। और यह विस्थापित होकर यहाँ कच्छ मे आ बसे। इनके काम मे महीनो का समय लगता है। लेकिन इनके द्वारा किए गए कढ़ाई के काम की फैशन डिज़ाइनरों मे बड़ी माँग है।


मेरी इस यात्रा में ऐसे ही एक और गांव में मैंने बड़े ही खूबसूरत गोल घर देखे। इस गांव का नाम था - भरिन्डयारी,  कच्छ मे कई प्रकार की कढ़ाई के नमूने देखने को मिलते हैं।  कहते हैं यह कला पाकिस्तान के सिंध प्रांत से कच्छ मे आई और इस सफर में राजस्थानी कला और यहाँ की स्थानीय कला ने इसे और समृद्ध बनाया।  पहले महिलाएँ अपनी बेटियों के शादी के जोड़े खुद तैयार करती थीं। आज यहाँ भाँति-भाँति की कढ़ाइयाँ देखने को मिलती हैं। जैसे खारेक, पाको, राबरी, गारसिया जात और मुतवा।



मुझे सुकून है कि मैं अपनी इस यात्रा मे असली गुजरात को देख पा रही हूँ।  मेरा अगला पड़ाव है होड़का गाँव जोकि धोर्ड़ो के रास्ते मे पड़ता है। इस गाँव की ख़ासियत है यहाँ के गोल घर। मिट्टी की दीवारें और अंदर से बड़े खूबसूरत होते हैं यह घर। आप भी देखिए। एक बार यहाँ आकर यहाँ से वापस जाने का मन नही करेगा। यह लोग अपने घरों को बहुत खूबसूरती से सजाते हैं। घर की दीवारों पर, छत को सब जगह कलाकारी देखने को मिलती है।



क्यूंकि यहाँ की मिट्टी बंजर है इसीलिए शायद यहाँ के लोगों के जीवन मे रंगों का बड़ा महत्व है। इनके कपड़े बड़े कलरफुल होते हैं। रंगीन धागे, शीशा, रंगीन मोती और ऊन के बने यह वस्त्र बहुत आकर्षक हैं। भूंगों मे दिन गुज़ारने के बाद मेरी यात्रा का अंतिम पड़ाव भी आ पहुँचा है। और यह है धोर्ड़ो गाँव जोकि भुज से 80 किलोमीटेर दूर है। यहाँ से सफेद रंण शुरू होता है। यहीं पर हर साल रंण उत्सव मनाया जाता है। देखा जाए तो यहाँ कुछ भी नही है सिवाए मीलों तक फैले सफेद रंण के लेकिन यहाँ रंण उत्सव मानने के लिए पूरा का पूरा टेंट सिटी बसाया जाता है। जोकि किसी स्वप्न लोक जैसा है। ठहरने के लिए वर्ल्ड क्लास टेंट्स लगाए गए हैं और यहाँ शुद्ध गुजराती खाने का प्रबंध किया गया है।



हम दोपहर होते होते धोर्ड़ो पहुँचे। बहुत भूक लगी थी तो सीधे डाइनिंग हॉल मे पहुँच गए। यहाँ का इंतज़ाम बहुत अच्छा है।  सब कुछ पर्फेक्ट। चेक इन से लेकर खाने पीने और रंण मे जाने की व्यवस्था तक सब कुछ पर्फेक्ट।

शाम को रंण उत्सव का शुभारम्भ माननीय मुख्यमंत्री श्री विजय भाई रुपानी के हाथों एक रंगारंग कार्यक्रम के साथ हुआ। हम सब ऊंट गाड़ी पर बैठ कर रंण मे पहुँचे। दूर तक फैला रंण बहुत सुंदर दिखता है। रात मे जब पूर्णिमा का चाँद रोशनी से सारे रंण को जगमगा देगा तब सैलानी इस अद्भुत नज़ारे को देखने रंण मे आएँगे। जिसकी व्यवस्था पहले से ही की गई है।



धवल चाँदनी मे रंण देखना एक अनोखा अनुभव है। मैं कहूँगी कि यह एक ऐसा अनुभव है जिसे सिर्फ़ महसूस ही किया जा सकता है। इसलिए कैमरे मे क़ैद करने के चक्कर मे न पड़ें। बस रण  में जाकर इसका लुत्फ़ उठाएं। ठंडी हवाओं के बीच रंण मे दूर तक सफेद चाँदनी को निहारना बहुत खूबसूरत अनुभव है।



यहाँ टेंट सिटी के पास ही क्राफ्ट बाज़ार है जहाँ कच्छ के हैंडी क्रॅफ्ट आइटम खरीदे जा सकते है। मेरे इस चार दिन के प्रवास मे मैने कच्छी एंबरोएडरी की सैंकड़ों साल पुरानी विरासत को क़रीब से देखा। साथ ही भिन्न-भिन्न प्रकार की जनजातियों के लोगों के जीवन को क़रीब से देखा।

मेरी इस यात्रा का एक और हाईलाइट है और वो है यहाँ का खाना। कहते हैं गुजराती खाना मीठा होता है। पर यह पूरा सच नही है।  यहाँ मीठे के साथ कई अन्य स्वाद भी है, आप ट्राई तो कीजिए।  मैने अपनी पूरी यात्रा मे गुजरात के अलग अलग स्वादों को चखा।  खमंड, धोखला, फाफड, थेपला, गुजराती थाली और भी बहुत कुछ।



गुजरात घूमने कब जाएं?

वैसे तो वर्ष में कभी भी गुजरात घूमने जाया जा सकता है लेकिन रण उत्सव हर वर्ष दिसंबर माह में होता है जोकि फरवरी तक चलता है। अगर आप रंण उत्सव देखने जा रहे हैं तो उद्घाटन के आसपास ही जाएं। फरवरी तक मेले का उत्साह थोड़ा ठंडा हो जाता है।

कैसे पहुंचें?

रंण उत्सव धोरडो नमक गांव में किया जाता है जिसके सबसे नज़दीक भुज(71 किलोमीटर) है। रण उत्सव के लिए आप बाई एयर या ट्रैन से भी जा सकते हैं। नज़दीकी एयरपोर्ट अहमदाबाद है। भुज एयरपोर्ट सबसे नज़दीक है लेकिन फ्लाइट्स बहुत ज़्यादा नहीं हैं, जबकि अहमदाबाद एयरपोर्ट देश के सभी बड़े शहरों से जुड़ा हुआ है। अहमदाबाद से धोरडो की दूरी 370 किलोमीटर है। सड़कें अच्छी हैं लेकिन रास्ता थोड़ा लंबा है।

फिर मिलेंगे दोस्तों, भारत दर्शन में किसी नए शहर की यात्रा पर, तब तक खुश रहिये, और घूमते रहिये,

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी

Thursday, 8 December 2016

कुम्भलगढ़ फेस्टिवल की छटा है निराली

कुम्भलगढ़ फेस्टिवल की छटा है निराली



Gair Dance at Kumbhalgarh Festival
सच कहूँ तो पहले कभी सुना नही था मैंने यह नाम। कुम्भलगढ़ को जानती ज़रूर थी लेकिन उसके विशालतम दुर्ग के लिए न कि फेस्टिवल के लिए, और इतना जानती थी कि ग्रेट वाल ऑफ़ इंडिया भी यहीं है।  राजस्थान टूरिज़्म की तरफ से जब न्योता आया तो जिज्ञासा हुई कि कैसा होगा यह फेस्टिवल।  हमेशा की तरह गूगल पर जाकर जानकारी जुटाने की कोशिश की। पर बहुत कुछ हाथ नही लगा। यू टयूब पर एक वीडियो देखकर तो सोच में पड़ गई की जाऊं कि न जाऊं। सच कहूं तो वीडियो देखकर कुछ ख़ास नही लगा था। ट्रैवेलर का पहला उसूल याद किया कि जब तक मैं अपनी आँखों से न देख लूँ तब तक भरोसा नही करूंगी। इसलिया फ़ैसला किया कि खुद जाकर देखूंगी।  वसे भी कुम्भलगढ़ जाना मेरी विशलिस्ट मे पहले से था। तो क्यों न फेस्टिवल के वक़्त जाया जाए।


Dafli dance at Kumbhalgarh Festival
कुम्भलगढ़ जाना जाता है अपनी सबसे लम्बी दीवार के लिए। पूरी दुनिया मे चीन की ग्रेट वॉल ऑफ चायना के बाद यह दीवार अपनी लंबाई के लिए मशहूर है। और यह क़िला इसलिए मशहूर है कि यह अजय है, अभेद है। इस दुर्ग को आज तक कोई भी जीत नही पाया है। इसके बनाना वालों ने इसे बड़ी होशयारी से बनाया है। सामरिक द्रष्टि से यह दुर्ग बहुत ही महत्वपूर्ण है।  इस दुर्ग के बारे मे बहुत कुछ है बताने को इसलिए दुर्ग की दास्तान अगली पोस्ट मे बताऊंगी। फिलहाल हम बात करेंगे कुम्भलगढ़ फेस्टिवल की।

उदयपुर तक मैं फ्लाइट से पहुँची और वहाँ से आगे रोड ट्रिप। उदयपुर से निकलते ही खूबसूरत पहाड़ी रास्ता शुरू हो जाता है। हमारे दोनो ओर अरावली पर्वत की श्रंखला चलती है। उदयपुर से जुड़ा अरावली का यह हिस्सा बहुत खूबसूरत है। अरावली पर्वत श्रंखला उत्तर मे पड़ने वाली एक लंबी श्रंखला है जोकि दिल्ली मे रायसीना हिल्स से शुरू होकर हरयाणा, राजस्थान और गुजरात तक जाती है। इन हरे भरे पहाड़ों को देख कर कोई नही कहेगा कि हम राजस्थान मे हैं।



 A dancer performing Chakri dance at Kumbhalgarh Festival
उदयपुर से लगभग तीन घंटों मे हम कुम्भलगढ़ पहुँचते हैं। कुम्भलगढ़ पहाड़ों के बीच बसा एक ऐसा स्थान है कि जहाँ एक इतना बड़ा दुर्ग भी हो सकता है इसका अंदाज़ा भी नही लगाया जा सकता। राणा कुम्भा ने इस दुर्ग का निर्माण करवाया। राणा कुम्भा के नाम पर ही इस दुर्ग का नाम पड़ा। महाराणा प्रताप की जन्मस्थली भी यही अभेद दुर्ग है। इस दुर्ग ने कई राजाओं का समय देखा।

कुम्भलगढ़ पहुंचते पहुँचते शाम घिर आई थी। शाम को कुम्भलगढ़ फेस्टिवल के अंदर सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। यह कार्यक्रम कुम्भलगढ़ फ़ोर्ट के प्रांगण मे ही होता है। हमने फ्रेश हो कर फ़ोर्ट का रुख़ किया। राणा कुम्भा कला और संगीत के प्रेमी थे, उन्ही की याद मे यहाँ कुम्भलगढ़ फेस्टिवल मनाया जाता है। राजस्थान के कोने कोने से का कलाकारों को बुलाया जाता है। कुम्भलगढ़ फ़ोर्ट ऊंची पहाड़ी पर बना है। जब तक हम फ़ोर्ट के बिल्कुल क़रीब नही पहुँच गए फ़ोर्ट दिखाई ही नही दिया। और पास आते ही पीली रोशनी मे जगमगाते फ़ोर्ट की लंबी दीवार नज़र आने लगी। सोने सी पीली चमक मे दूर तक नज़र आती दीवार ने मेरे क़दम वहीं रोक लिए। यह लंबी दिवार ही कुम्भलगढ़ की पहचान है।



 Kumbhalgarh Fort-The grate wall of India-World Heritage site by UNESCO
विशाल दुर्ग अपनी पूरी शान के साथ खड़ा हुआ था। और उस दुर्ग के चारों ओर लागभग 36 किलोमीटेर की लंबी दीवार खड़ी थी।  मैने कुछ तस्वीरें क्लिक की और दुर्ग के सदर दरवाज़े से प्रवेश किया।

अंदर वाक़ई उत्सव का माहौल था। फूलों से सजावट की गई थी। यज्ञशाला के सामने प्रांगण मे लोक कलाकार अपनी कलाओं का प्रदर्शन कर रहे थे।  काले कपड़ों मे नृत्य करने वाली काल्बेलिया डान्सर्स, रंग बिरंगी पोशाक मे चकरी नृत्य करने वाली महिलाएँ। भील जनजाति द्वारा प्रस्तुत नृत्य, झालोर से आए बड़ी-बड़ी ढ़पली बजाने वाला समूह। घूमर नृत्य, घेरदार लाल पोशाक और लाठी के साथ गैर नृत्य करते भील जनजाति के लोग।


अलग अलग रूपों मे सजे बहुरुपीए। कोई रावन बना हुआ था तो कोई विष्णु का अवतार।  रावन के अट्टहास को देख बच्चे भी एक बार को सहेम गए। दस सिरों वाले लंकापति रावन का रोब देखने वाला था।

राजस्थान के दूर दराज़ के क्षेत्रों शेत्रों से आए आदिवासियों के नृत्य मे प्रकृति प्रेम दूर से ही झलकता है।  शरीर पर पैंट किए, सिर पर मोरपंखी मुकुट पहने यह आदिवासी विभिन्न मुद्राओं से जंगल और वहाँ के जीवन की मनोरम छटा बिखेर रहे थे। कच्ची घोड़ी यहाँ का प्रसिद्ध नृत्य है जोकि शादियों के समय में किया जाता है। इस नृत्य का संबंध शेखावटी क्षेत्र से है।

इन सब को देखने आस पास के गाँवों से महिलाएँ बच्चे बड़ी संख्या मे जुटते हैं। राजस्थान टूरिज़्म इस अवसर पर अपने प्रदेश की लोक संस्कृति से रूबरू करवाने मे कोई कसर बाक़ी नही रखता। यहाँ पगड़ी बाँधने की प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है।

रंग बिरंगे साफे सब प्रतिभागियों को दिए जाते हैं।  प्रतियोगिता से पहले उन्हें डेमो भी दिया जाता है, कि किस प्रकार साफा बंधा जाता है। उसके बाद पुरुष और महिलाओं मे साफा बाँधने की प्रतियोगिता का आयोजन होता है।राजस्थानी पगड़ी कैसे बांधी  जाती है इसके लिए विडियो आपके लिए।  इस प्रतियोगिता मे एक विजेता पुरुषों मे से और एक विजेता महिलाओं मे से चुना जाता है।

नेपथ्य मे विशाल दुर्ग और नीला खुला आसमान इस रंगारंग उत्सव का साक्षी बनता है। और इस तरह तीन दिनो तक राजस्थान की कला और लोक संस्कृति की झलक नज़दीक से देखने को मिलती है।  दिन भर चलने वाले यह कार्यक्रम शाम होने तक ख़त्म हो जाते हैं और लोग शाम को होने वाले प्रोग्रामों की तैयारी मे लग जाते हैं।


शाम को ठंडी ठंडी हवाओं के बीच यज्ञशाला के पिछले हिस्से मे एक ऊंचे स्टेज पर संस्कृति कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। पहले दिन प्रसिद्ध लोक गायक चुग्गे ख़ान साहब ने राजस्थानी मिट्टी की खुश्बू से सराबोर लोक गीतों से मन मोह लिया। उन्हें सुनने सैलानी तो मौजूद थे ही साथ ही आस पास के गाँवों से आई पारंपरिक पोशाकों मे सजी महिलाएँ भी बड़ी संख्या मे उपस्थित थी,और घूँघट के पीछे होने के बावजूद ये महिलाएँ न सिर्फ़ संगीत का आनंद ले रही थीं बल्कि चुग्गे ख़ान साहब से फरमाइशी गीत भी सुनने का आग्रह कर रही थीं। यह मंज़र देखने लायक़ था। चुग्गे ख़ान साहिब का संबंध राजस्थान के लोक गायक समुदाय माँगनियार से है। इनका सूफ़ी कलाम दिल को छू लेने वाला होता है। धवल चाँदनी रात मे खुले आकाश तले चुग्गे ख़ान साहब के गीतों को सुनते हुए शाम कैसे बीत गई पता ही नही चला।


 dance performance at Kumbhalgarh Festival
 अगले तीन दिनो तक यह सिलसिला चलता रहा। दिन के समय लोक नृत्य और रात के समय लोक गीतों और नृत्य नाटिका का आयोजन। अरावली पर्वत श्रंखला के बीच स्थित कुम्भलगढ़ के क़िले मे यह आयोजन किसी नगीने जैसा है। इसके बारे मे बहुत ज़्यादा लोग नही जानते लेकिन जो इसे अनुभव कर लेते हैं वो इसे भूल नही पाते। राजस्थान टूरिज़्म  इस कार्यक्रम का आयोजन करता है। वैसे तो मैंने बहुत सारे फेस्टिवल और महोत्सव देखे हैं लेकिन मुझे कुम्भलगढ़ फेस्टिवल इसलिए बहुत पसंद आया क्योंकि यह लोगों के द्वारा और लोगों के लिए आयोजित किया जाता है। यहाँ आम आदमी ही ख़ास है।

वो भीड़ का हिस्सा नहीं बल्कि सम्मानित अतिथि है। इसीलिए यहाँ गांवों से महिलाऐं, बच्चे बड़ी तादाद में आते हैं। शुक्र है कोई तो जगह ऐसी है जहाँ चीजें अपना उद्देश्य नहीं खो रही हैं। यहाँ हर रोज़ शाम को सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। नेपथ्य में पीली रोशनियों में जगमगाता कुम्भलगढ़ का दुर्ग और ऊँचे स्टेज पर परफॉर्म करते कलाकार, समां बांध लेते हैं।

 Contemporary dance performance at Kumbhalgarh Festival

इन कार्यक्रमों को देखने के बाद मैं यह दावे के साथ कह सकती हूँ कि आप जोधपुर में होने वाले राजस्थान इंटरनेशनल फोक फेस्टिवल RIFF को भूल जाएंगे। बस फ़र्क़ इतना है कि कुम्भलगढ़ फेस्टिवल राजस्थान इंटरनेशनल फोक फेस्टिवल (RIFF रिफ्फ़) जितना महँगा और आम आदमी की पहुँच से दूर नहीं है।

 A performer playing with fire at Kumbhalgarh Festival

यह मंच हर प्रकार के कलाकारों को अवसर देता है। फिर चाहे वो आग से कलाबाज़ियां हों या फिर क्लासिकल डांस फॉर्म्स के साथ कॉन्टेम्पोररी डांस ड्रामा का फ्यूज़न।

कैसे पहुंचे कुम्भलगढ़ 

कुम्भलगढ़ राजस्थान के राजसमंद ज़िले में पड़ता है। कुम्भलगढ़ सड़क, रेल और हवाई मार्ग से जुड़ा हुआ है।

हवाई यात्रा:

कुम्भलगढ़ लिए नज़दीकी एयरपोर्ट उदयपुर है जोकि कुम्भलगढ़ से 85 किमी दूर है।

रेल यात्रा:

कुम्भलगढ़ के लिए नज़दीकी रेलवे स्टेशन फालना है जोकि 80 किमी दूर है और उदयपुर रेलवे स्टेशन 88 किमी दूर है।

सड़क यात्रा:

कुम्भलगढ़ पहुँचने के लिए राजस्थान रोडवेज की बसों के अलावा टैक्सी भी ली जा सकती है।

कब जाएं?

कुम्भलगढ़ फेस्टिवल हर साल राजस्थान टूरिज़्म द्वारा आयोजित किया जाता है। यह नवम्बर माह में आयोजित किया जाता है। डेट्स के लिए राजस्थान टूरिज़्म की वेबसाइट चेक करके जाएं।


फिर मिलेंगे दोस्तों, भारत दर्शन में किसी नए शहर की यात्रा पर, तब तक खुश रहिये, और घूमते रहिये,

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी

Sunday, 27 November 2016

लोक नृत्य, कला और प्रकृति की सौगात-संगाई फेस्टिवल, इम्फाल मणिपुर


लोक नृत्य, कला और प्रकृति की सौगात-संगाई फेस्टिवल, इम्फाल मणिपुर


 

[caption id="attachment_8133" align="aligncenter" width="1200"]solo-female-traveller-kaynat-kazi-Sangai-festival-manipur Folk dance at Sangai festival-Manipur[/caption]

दिल्ली से मणिपुर तक का सफ़र लंबा है। यहाँ तक पहुँचने के दो ही साधन हैं, या तो बस या फिर फ्लाइट। पहाड़ों की दूर दूर तक फैली क़तारों को पर करके मणिपुर आता है। मुझे जब मणिपुर टूरिज़्म से संगाई महोत्सव न्योता आया तो जाना तो बनता ही था। हमारे देश के उत्तर पूर्वी राज्यों को सात बहने माना जाता है। नॉर्थ ईस्ट के यह 7 राज्य बहुत खूबसूरत हैं।


 सिक्किम, मणिपुर, मेघालय,नागालैंड, अरुणाचल परदेश,मिज़ोरम और त्रिपुरा सभी एक से बढ़ कर एक राज्य हैं। क़ुदरत ने भर भर हाथ इन प्रदेशों को प्राकृतिक सुंदरता से नवाज़ा है। इसी लिए शायद पंडित नेहरू इसे भारत का नगीना कहा करते थे। वैसे इसे प्यार से लोग ईस्ट का स्विट्जरलैंड भी कहते हैं। मणिपुर एक छोटा राज्य है लेकिन इसका सामरिक महत्व बहुत है। मणिपुर म्यामार के साथ 348 किलोमीटर की अंतरराष्ट्रीय सीमा साझा करता है। आप यहां से एक दिन मे भी म्यामार होकर आ सकते हैं। हमारे देश के पड़ोसी राष्ट्रों से संबंधों की द्रष्टि से भी इस राज्य का बड़ा महत्व है। यहाँ से होकर सड़क के रास्ते म्यामार और थायलैंड तक जाया जा सकता है।


sangai-festival


हाँ तो हम बात कर रहे थे संगाई फेस्टिवल की। संगाई फेस्टिवल इंफाल मे नवम्बर के महीने मे हर साल बड़े ही धूम धाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर पूरे शहर को दुल्हन की तरह सजाया जाता है। शाम होते ही पूरा शहर जगमगाती रोशनियों से सज जाता है। संगाई फेस्टिवल एक ज़रिया है इस छोटे से राज्य मे फैले 34 जनजातियों की अलग-अलग संस्कृतियों से रूबरू होने का। इस फेस्टिवल द्वारा पूरे के पूरे मानीपुर की आत्मा को एक जगह लाकर रख दिया जाता है। मणिपुर तीन चीज़ों के लिये जाना जाता है, यहाँ का नृत्य, लोक कला प्राकृतिक सुंदरता और सांस्कृतिक धरोहर।




[caption id="attachment_8135" align="aligncenter" width="1200"]solo-female-traveller-kaynat-kazi-Sangai-festival-manipur Tribal life at Sangai festival-Manipur[/caption]

 महीनों पहले से इस फेस्टिवल की तैयारी शुरू हो जाती है। इंफाल मे फेस्टिवल ग्राउंड जिसे BOAT कहते हैं, में फेस्टिवल का आयोजन किया जाता है। ग्राउंड मे एक तरफ मणिपुर की जनजातियों के जीवन को दर्शाने के लिए उन जनजातियों के घरों के स्वरूप तैयार किए जाते हैं। दूसरी तरफ खाने पीने के स्टॉल्स और तीसरी तरफ यहाँ की लोक कला से जुड़े स्टॉल्स, जहाँ पर हाथ से बने कपड़े, बाँस का हेंडीक्राफ्ट आइटम्स होते हैं।




[caption id="attachment_8142" align="aligncenter" width="1200"]sangai-festival-2016-manipur-kaynatkazi-photography-2016-www-rahagiri-com-5-of-32 Tribal art at Sangai festival-Manipur[/caption]

sangai-festival-2016-manipur-kaynatkazi-photography-2016-www-rahagiri-com-4-of-32


इसी ग्राउंड मे एक बड़ा-सा आधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण ओपन थियेटर भी है जहाँ हर शाम सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। मणिपुर के लोगों के जीवन मे संगीत और नृत्य का बड़ा महत्व है इसीलिए यहाँ के लड़के और लड़कियाँ इन आयोजनों मे बढ़ चढ़ कर भाग लेते हैं।




[caption id="attachment_8136" align="aligncenter" width="1200"]solo-female-traveller-kaynat-kazi-Sangai-festival-manipur Folk dance at Sangai festival-Manipur[/caption]

मणिपुरी नृत्य मे वैसे तो मुख्य रूप से रासलीला का मंचन किया जाता है। जहाँ कृष्ण और अन्य पौराणिक पात्रों जीवन से जुड़ी कथाओं और लीलाओं का मंचन होता हैं। इसके अलावा यहाँ की जनजाति और आदिवासियों द्वारा नृत्य प्रस्तुत किए जाते हैं जिनमे आदिवासी जीवन की झलक मिलती है। जैसे यह नृत्य नाटिकाएँ प्राकृति के नज़दीक होती हैं, जिनमे पंछियों की आवाज़ें, जानवरों की मुद्राएँ और पोशाक मे भी जानवरों के सींग आदि का प्रयोग किया जाता है। यह नृत्य बताते हैं की यह लोग आज भी प्राकृति के कितने नज़दीक हैं।




[caption id="attachment_8137" align="aligncenter" width="1200"]solo-female-traveller-kaynat-kazi-Sangai-festival-manipur Boat race at Sangai festival-Manipur[/caption]

नृत्य के अलावा लोक जीवन के दर्शन हमे एक अन्य आयोजनों में भी देखने को मिले। संगाई महोत्सव के दिनों मे ही इंफाल मे स्थित कंगला फ़ोर्ट के सहारे सहारे बनी नहर पर पारंपरिक तरीके से बोट रेस का आयोजन किया जाता है। यह परंपरा यहाँ के राजा के समय से चली आ रही है। इस बोट रेस मे हिस्सा लेने दूर दूर से लोग आते हैं। और अपने राजा को भेंट अर्पित करते हैं।




[caption id="attachment_8143" align="aligncenter" width="1200"]sangai-festival-2016-manipur-kaynatkazi-photography-2016-www-rahagiri-com-21-of-32 Beautiful ladies of Manipur in traditional outfits at the Boat race, Sangai festival-Manipur[/caption]

[caption id="attachment_8139" align="aligncenter" width="1200"]solo-female-traveller-kaynat-kazi-Sangai-festival-manipur A gift of love for the King at the Boat race, Sangai festival-Manipur[/caption]

[caption id="attachment_8140" align="aligncenter" width="1200"]sangai-festival-2016-manipur-kaynatkazi-photography-2016-www-rahagiri-com-18-of-32 Beautiful girls of Manipur in traditional outfits at the Boat race, Sangai festival-Manipur[/caption]

यह परंपरा आज भी निभाई जा रही है। लाव लश्कर के साथ लोग पारंपरिक वेश भूषा में सज कर आते हैं और अपने आराध्य देव की पूजा करते हैं। पूजा के बाद दो पतली नावों में नाविक सवार होते हैं। और रेस आरम्भ की जाती है। जो सबसे पहले नहर का चक्कर लगा कर वापस आता है वही विजयी घोषित किया जाता है। यह रेस केरल में आयोजित की जाने वाली स्नेक बोट रेस से थोड़ी अलग है।




[caption id="attachment_8138" align="aligncenter" width="1200"]solo-female-traveller-kaynat-kazi-Sangai-festival-manipur Beautiful ladies of Manipur in traditional outfits at the Boat race, Sangai festival-Manipur[/caption]

उस रेस में नाविक बैठ कर नाव चलाते हैं जबकि यहाँ नाव में खड़े होकर बड़ी मुश्किल से बैलेंस बनाते हुए नाव चलानी पड़ती है। केरल की बोट रेस एक्शन से भरपूर होती है जबकि यह रेस धीमे धीमे आगे बढ़ती है। पुरुषों के बाद महिलाओं की रेस रखी जाती है। सुन्दर पारंपरिक परिधान मेखला में सजी यह महिलाऐं किसी अप्सरा सी सुन्दर नज़र आती हैं। वैसे तो संगाई  फेस्टिवल का मुख्य केंद्र इम्फाल ही है लेकिन एडवेंचर एक्टिविटी के लिए इम्फाल के बाहर भी आयोजन किये जाते हैं।


संगाई फेस्टिवल पहले मणिपुर टूरिसम फेस्टिवल के रूप मे जाना जाता था बाद मे इसे संगाई फेस्टिवल नाम दिया गाया। संगाई यहाँ के जंगलों मे पाया जाने वाला हिरण है। जोकि यहाँ लोकप्रिय जीव है, साथ ही आज उसके अस्तित्व पर ख़तरा मंडरा रहा है। संगाई हिरण की प्रजाति के संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए उसी हिरण के नाम पर इस फेस्टिवल का नाम संगाई पड़ा।


मणिपुर मे संगाई फेस्टिवल हर साल 21 से 30 नवंबर के बीच मनाया जाता है। मणिपुर में और भी बहुत कुछ है देखने को बस इन्तिज़ार कीजिये मेरी अगली पोस्ट का।


कैसे पहुंचें




[caption id="attachment_8145" align="alignright" width="372"]kaynat kazi Dr.Kaynat Kazi at Sangai festival-Manipur[/caption]

मणिपुर  से पहुँच सकते हैं, सड़क और हवाई यात्रा।


मणिपुर उत्तर पूर्व के अपने पड़ोसी राज्यों जैसे नागालैंड, असम, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश से सड़क मार्ग द्वारा अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। मणिपुर में रेलवे अभी तक नहीं पहुंची है। इसके लिए नज़दीकी रेलवे स्टेशन नागालैंड का दीमापुर रेलवेस्टेशन है जोकि इम्फाल से  लगभग 215 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।


मणिपुर पहुँचने के लिए सबसे आसान तरीका है हवाई यात्रा का। इम्फाल एक अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डे है जोकि दिल्ली कोलकाता आदि मुख्य शहरों से जुड़ा हुआ है।


फिर मिलेंगे दोस्तों, भारत दर्शन में किसी नए शहर की यात्रा पर, तब तक खुश रहिये, और घूमते रहिये,

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा० कायनात क़ाज़ी

Monday, 21 November 2016

PROPERTY REVIEW: UPRE-The most romantic restaurant in Udaipur

UPRE-The most romantic restaurant in Udaipur


solo-female-traveller, photographer; property reviewer

Imagine a city of lake and
An evening by the lakeside
Under the moon-light
U & me and the magnificent view of the city palace & the ghats
When lights flickering on the water
When the wind sings
Be seated in front of me until the morning


Yes an anonymous poet has well described the feelings about this place. This small poem has been written for non-other than a very famous roof top restaurant of Udaipur Upre. This elegant restaurant in Lake Pichola hotel offers fine dining along with authentic Mewari cuisine in a beautiful setting.  This multi cuisine restaurant just not offer the good food but the best view of Lake Pichola, city palace and Amrai ghat. It provides a panoramic view of the beautiful landscape of old city-Udaipur.


solo female traveller;www.rahagiri.com;kaynatkazi


When I first time came to know about this restaurant I was wondering about its unusual name- UPRE.


What does it mean? I thought that Udaipur is very famous in French people, may be this name came from their language but I was wrong. When I checked with the restaurant manager he told me that in Rajasthani language UPRE means a place on the upper floor.


Location


The location of this restaurant is very prominent. It is situated on the top floor of Lake Pichola Hotel. Lake Pichola Udaipur is a legendary palace situated on the peaceful island of “Bramhapuri” on the western Banks of Lake Pichola overlooking the magnificent City Palace.


Let me tell you little more about Udaipur. It is considered one of India’s most romantic destinations among foreign tourists. According to a young entrepreneur & hotelier Saurabh Arya-Udaipur is on the top of wish list of the foreign tourist but There is no choice except landing in Delhi first because Udaipur does not have an international airport otherwise 99% foreign tourist wants to visit Udaipur first.


This statement clearly says that foreign tourists love this city a lot. Udaipur has got many names like Venice of the East, city of the lakes and Kashmir of Rajasthan


Food:


Rajasthan is the land of Thar Desert, Maharajas and it is known for royalness and legacy of the Rathores. This part of India has desert so availability of green vegetables are not so easy as compared to other parts of India but it does not stop the passion of food. The have developed many techniques of culinary art. Which helps them to prepare rich food with lots of dry herbs, vegetables and spices.  In spite of the fact that Rajasthan is the land of desert,  the Rajasthani cuisine has plenty of delicacies to offer like Dal Bati Churma. Laal Maas, Mohan Maas, Ker Sangri along with Bajre Ki roti, Gatte ki Sabzi, Rajasthani Kadi and Shahi tukda.




The staff was very gentle and well behaved. Make sure you reserve a table in advance to avoid the long-standing queue at the restaurant.


To be very honest I was impressed with UPRE more for the view and the food later. I would recommend every food enthusiast for taste Lal Mas at least once. I would love to visit this place again for a wonderful evening with someone special.


Till we meet next with a new property review.

Your friend and companion

Dr. Kaynat Kazi

Friday, 18 November 2016

PROPERTY REVIEW: Shivadya Resort & Spa, Manali, Himachal Pradesh

आज से पहले तक मनाली का नाम आते ही मेरे दिमाग़ मे जो पिक्चर बनती थी वो थी बहुत सारी भीड़, नए-नए शादी वाले हनीमून कपल्स, बहुत सारा ट्रफ़िक, और डीज़ल गाड़ियों से निकलता धुआँ।


हिमालय के प्राकृतिक सौंदर्य की तलाश मे आए लोगों को मनाली कुछ ऐसा ही स्वागत करता है। मैं सोचती थी कहाँ है वो लकड़ी के बने घर जिनके झरोखों से खूबसूरत पहाड़ी बच्चे झाँका करते थे, कहाँ हैं वो देवदार के घने जंगल जिनके बीच से पहाड़ी नदियाँ कल-कल करके बहती थीं?  कहाँ है वो पाईंन के कच्चे फलों से आती महक जो दीवाना बनाती थी? पर मेरी पिछली  सभी यात्राओं मे मुझे नाउम्मीदी  ही हाथ लगी। ऐसा कुछ भी नज़र नही आया। लेकिन इस बार जब शिवाद्या रिज़ॉर्ट & स्पा ने बुलावा भेजा तो उसकी लोकेशन देख कर मन मे थोड़ी- सी आस जागी। यह शोर शराबे वाला मनाली तो नही, जिस को मैं देखना नही चाहती। यह तो वही अनछुआ अनदेखा मनाली है जहाँ पहुंचने की तलाश मुझे हमेशा ऊर्जा से भर देती है। एक बार हिमाचल की खूबसूरत वास्तुकला को निहारने नग्गर कैसल भी बड़ी उम्मीद के साथ गई थी लेकिन वो खूबसूरत दुर्ग हिमाचल टूरिज़्म के तले होने के कारण बदइंतिज़ामी और घटिया रखरखाव की मार झेल रहा है। उसकी खूबसूरती की ऐसी बेक़द्री देखी की जी भर आया।


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इस बीच मैने बहुत कोशिश की कि मुझे हिमाचल की कला और संस्कृति से रूबरू होने का मौक़ा मिले वो भी क़रीब से, पर यह हो ना सका। लेकिन जब शिवादया से आइटिनरी आई तो लगा कुछ खास है इस जगह मे। यहाँ तो जाना बनता ही है।


रात भर का सफ़र कर हम दिल्ली से मनाली पहुँच गए थे शिवादया जाने के लिए हमें मनाली से 12 किलोमीटर पहले पतलिकुल नाम की जगह पर उतरना था जहाँ से हमे शिवादया के स्टाफ ने पिक किया। और हम पतली पहाड़ी रोड पर चढ़ने लगे। हम नग्गर मे थे और क़रीब 15-20 मिनट की ड्राइव के बाद हम कर्जन नाम के गांव मे पहुँचे।  यहाँ शिवादया रिज़ॉर्ट की दुर्गनुमा बिल्डिंग अपनी पूरी आन बान और शान के साथ खड़ी हुई थी। चारों तरफ सेब का बगीचा, एक तरफ धौलाधार पर्वत श्रृंखला और दूसरी तरफ पीर पंजाल पर्वत श्रृंखला और बीच मे वैली मे बसा शिवादया। किसी परियों की कहानी मे बना हिमाचली महल।


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हमारा हिमाचल के पारंपरिक अंदाज़ मे आरती टीके के साथ स्वागत करने हिमाचली परिधान मे सजी महिलाएँ इंतिज़ार कर रही थीं। स्वागत के बाद हमे लाउंज मे ले जाया गया। यहाँ कई कॉटेज हैं और इन के अलावा एक लाउंज है जहाँ बैठ कर हाथ तापते हुए हमने गरमा गरम चाय का आनंद लिया। और फिर शुरू हुआ बातों का सिलसिला।


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कहते हैं कि बात निकलेगी तो फिर दूर तक जाएगी, और निकल पड़ेगा सिलसिला इस देव भूमि हिमाचल को जानने का।  कुछ ऐसे ही ख़्याल के साथ शिवादया को बनाया गया है। अगर आप ऐसे ट्रेवलर हैं जोकि होटल मे जाकर रूम मे लॉक होना पसंद करते हैं तो यक़ीनन शिवादया रिज़ॉर्ट्स आपके लिए नही बना है। यह सिर्फ़ एक ठहरने की जगह भर नही है। ये एक मुलाक़ात है हिमाचल और हिमालय की परंपराओं से। शिवादया को बनाना वाले श्री रितेश सूद का ताल्लुक़ टूरिज़्म बॅकग्राउंड से है, लेकिन शिवादया बनाने का सपना उन्होने किसी राजा की तरह पूरा किया। रितेश जी बताते हैं कि हिमाचल आने वाले टूरिस्ट जितने देसी होते हैं उसे कहीं ज़्यादा विदेश से आते हैं लेकिन पूरे हिमाचल मे ऐसी एक भी प्रॉपर्टी नही है जो की सही मायनों मे इस प्रदेश की संस्कृति से रूबरू करवाती हो। रंग बिरंगी झंडियां और बुद्ध की फोटो तो हर जगह मिल जाएगी लेकिन ऐसी कोई भी जगह नही है जो यहाँ के भूगोल और इतिहास को ब्यान करे। बस इसी सोच के साथ शिवादया बनाना के सपने का आगाज़ हुआ।


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यहाँ हर चीज़ के पीछे एक दास्तान छुपी हुई है। अब यहाँ बने कमरों को ही ले लीजिए। आम तौर पर होटल या रिज़ॉर्ट मे कमरों के नंबर होते हैं लेकिन यहाँ नंबर न होकर इनके नाम हैं जैसे, फोज़ल, सजला, कल्पा, कुंज़ुम, ज़ांस्कर और काज़ा जो भी इन नामों को सुनेगा एक बार तो पूछेगा ही कि इन नामों के पीछे क्या कहानी है। तो फिर सुनिए रितेश जी की ही ज़ुबानी। हिमाचल परदेश जाना जाता है माउंटेन पास और माउंटेन रेंज के लिए।


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यहाँ मुख्य रूप से पाँच माउंटेन पास हैं कल्पा, कुंज़ुम, ज़ॅन्स्कर और काज़ा उन्ही माउंटेन पास के नामों पर इन कमरों के नाम रखे गए हैं, वहीं ग्राउंड फ्लोर पर बने कमरों के नाम हैं किन्नर, कैलाश, श्रीखंड, ज़ांस्कर, धौलाधार और पीर पंजाल यह हिमाचल की मुख्य पर्वत श्रंखलाएँ हैं। क्यूँ है ना रोचक। कमरों के नाम से ही हिमाचल के भूगोल की जानकारी मिल जाएगी। जब आप यहाँ से जाएँगे तो बिना अलग से एफर्ट लगाए हिमाचल के पास और पर्वत मालाओं को जान जाएँगे।


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मुख्य बिल्डिंग के पीछे जो कमरे हैं उनमे किचन भी दिया गया है, किचन का होना कमरे मे पानी की उपस्थिति दर्शाता है इसी लिए इनके नाम सिलचर और चंद्रताल हैं।  सिलचर हिमाचल की एक लेक है जोकि शिमला और मनाली के बीच जलोड़ी पास के पास पड़ती है और चंद्रताल भी हिमाचल की एक जानी मानी लेक है। तो इस बहाने आप हिमाचल की लेक के बारे मे भी जान जाएँगे।


जहाँ रिज़ॉर्ट का रिसेप्शन है वह एक ऊंची तीन मंज़िला बिल्डिंग है जिसकी वास्तुकला हिमाचल के भीमा काली मंदिर से प्रभावित है वहीं इसकी छत को देख कर मनाली का हिडंबा मंदिर याद आता है। कहीं कहीं से यह इमारत नग्गर कैसल जैसी भी नज़र आती है। इस इमारत को बनाए के पीछे एक विचार था जिसे रितेश जी बड़े मज़ेदार ढंग से बताते हैं। आप भी सुनिए।


हिमाचल के गाँव देहातों मे पत्थर और लकड़ी से घर बनाए जाते हैं।  जिनको काठ कोनी के घर कहा जाता है।  यह एक प्रकार की धरोहर है। और धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है। अब लोग नए प्रकार के सीमेंट के घर बनाते हैं। इसलिए रितेश ने हिमाचली काठ कोनी घरों की संरचना को यहाँ दर्शाया है।


तो कैसे होते हैं काठ कोनी घर? मैने जिज्ञासावश पूछा।


काठ कोनी घर 3 मंज़िला मकान होते हैं जिनमे सबसे नीचे का भाग घर के पशुओं के लिए रखा जाता है जिसे कुड कहते हैं उसके ऊपर वाला भाग लिविंग रूम और अतिथि सत्कार के लिए इस्तेमाल होता है जिसे बौडी कहते हैं जहाँ हमने एक वर्ल्ड क्लास स्पा बनाया हुआ है। उसके ऊपर वाला भाग भगवान और रसोई के लिए होता था जिसे हिमाचली मे टाला कहते हैं। यह घर का सबसे महत्वपूर्ण स्थान होता है। इसलिए इसे सबसे ऊपर वाले भाग मे रखा जाता है। जिससे किसी भी प्रकार की अशुद्धि से बचा जा सके। हमने उस परंपरा को ज़िंदा रखा है और हमारा रेस्टोरेंट भी वहीं बनाया है और उस मल्टी कुज़ीन रेस्टोरेंट का नाम भी टाला ही है। जहाँ अंदर बैठने की जगह जितनी खूबसूरत है वहीं चारों ओर बना झरोखेवाला बरामदा और भी हसीन है। यहाँ से बर्फ से ढ़के पहाड़ों को देखना बहुत अच्छा अनुभव है।


वाक़ई रितेश जी की बात सही थी। जब मैने यह बिल्डिंग देखी तो लगा कि किसी हिमाचली घर मे हूँ। बस फ़र्क़ इतना है कि यहाँ एक एक चीज़ को बड़ी नफ़ासत से बनाया गया है।


यह पूरी इमारत ढ़ाई साल मे बन कर तैयार हुई। यहाँ रात दिन एक करके लगभग 100 मज़दूरों और कलाकारों ने इस इमारत को बनाया।


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पत्थर की चुनाई से लेकर लकड़ी की नक़ारशी तक हर चीज़ मे परफेक्शन। जहाँ ये इमारत बाहर से किसी हिमाचली दुर्ग जैसी दिखती है। वहीं अंदर से किसी 5 स्टार होटल की लग्ज़री भी देती है।  ऊंची छत वाले कमरे, जिनमे देवदार की लकड़ी से वुडनवर्क किया गया है।  दीवारें जिन पर मिट्टी की लिपाई की गई है, फर्श जिसे लकड़ी का एक एक टुकड़ा जोड़ कर बनाया गया है। दीवारों पर लगे आर्टवर्क सब कुछ बहुत खास। हिमाचल के कोने कोने से चुन चुन कर लाई गई चीज़ें जैसे पट्टू पैटर्न, कांगड़ा रुमाल सिगड़ी और न जाने क्या क्या।  रितेश जी रिज़ॉर्ट मे आने वाले हर गेस्ट को अपना मेहमान समझते हैं और खुद कैंपस विज़िट करवाते हैं। यह रिज़ॉर्ट स्टेप फार्म्स के बीच मे बना है। एक तरफ धौलाधार और दूसरी तरफ पीर पंजाल पर्वतमालाएँ इस हसीन दुर्ग की रक्षा कर रही हैं। सेब के बाग़ के बीच मे आराम कुर्सी पर धूप सेंकना मेरे लिए किसी दोपहर को सुकून से जीने जैसा था।  यहाँ रिज़ॉर्ट एक कोने मे बोन फायर के लिए इंतज़ाम किया गया है। ढ़लती शाम के साथ लाइव बारबेक्यू का मज़ा ही निराला है।कभी कभी आपने सोचा है एप्पल ऑर्चिड के बीच में देवदार से ढंके पहाड़ों को निहारते हुए सर्दियों की धूप का मज़ा लेना और लांच करना। यह अनुभव बहुत मज़ेदार है। मैंने ख़ुद  किया है इसलिए बता रही हूँ। कभी आप भी ट्राय  कीजियेगा।


फूड:


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Food-Shivadya-Resorts-Spa-Manali-KaynatKazi-Photography-2016 


मेरी हमेशा से यह शिकायत रही है कि हिमाचल मे खाने मे स्वाद नही मिलता। पर यहाँ आकर यह शिकायत भी दूर हो गई।  मुगलई से लेकर चायनीज़ और कॉंटिनेंटल सभी तरह के खाने लाजवाब हैं।


सबसे अच्छी बात तो यह कि हमे हिमाचली परंपरागत भोजन से रूबरू होने का मौक़ा भी मिला।  रितेश जी की पत्नी नीलम जी ने हिमाचली भोजन सिखाने के लिए खास सेशन भी दिया।


पहला दिन मे ही हमने इतना कुछ जाना और देखा कि ब्यान करना मुश्किल है।  अगली सुबह पास के गाँव देखने का प्लान था।  हिमाचली गाँव बहुत खूबसूरत होते हैं यह सिर्फ़ सुना भर था लेकिन इतने ज़्यादा खूबसूरत होते हैं यह मालूम ना था। यह भी हो सकता है कि पाईन के जंगल को पार करने के बाद गाँव देखना ज़्यादा सुहाना लग रहा था।  यहाँ लोग इसे वॉक कहते हैं लेकिन हमारे लिए यह ट्रैकिंग थी।


Village near Shivadya resort & spa

पहाड़ों पर फैला देवदार का खूबसूरत जंगल जहाँ जगह जगह पानी के चश्मे फुट रहे थे।  पहाड़ की पगडंडी पर लाइन डोरी से आगे बढ़ते हुए हमने कितनी ही पहाड़ी महिलाओं को देखा जोकि अपनी पीठ पर टोकरी लाधे तेज़ तेज़ क़दमों से जा रही थीं।  यहाँ के लोग बड़े मेहनती होते हैं, खेतों मे काम करने से लेकर जंगल से लकड़ियां लाने तक सब काम खुद करते हैं।  क़रीब 20 मिनट की ट्रेकिंग के बाद हम एक ऐसी जगह पहुँचे जो कि देवदार के जंगल के बीचों बीच थी। यहाँ पहाड़ी नदी पूरी रफ़्तार  से बह रही थी।



यह जगह किसी ड्रीम लैड जैसी है। चारों तरफ ऊंचे ऊंचे देवदार के पेड़ और बीच मे बना लकड़ी का पुल जिसके नीचे एक नदी बह रही है। मन किया यहीं बैठ जाऊं और घंटों इस दूध जैसे सफेद पानी को बहते हुए देखूं। यहाँ इतनी शांति है। सिर्फ़ पानी की आवाज़ आ रही है।  दोपहर का समय है लेकिन देवदार के घने पेड़ों के कारण धूप छन-छन कर आ रही है।  पास ही एक पत्थर पर 100 मीटर की दूरी पर किसी कैफे के होने का विज्ञापन पेन्ट किया है।  चलो जंगल मे भी कॉफी का इंतज़ाम भी है।  इस जगह मे इतना आकर्षण है कि अगर मुझे ज़बरदस्ती उठा कर लेकर न जाया जाता तो शायद मैं घंटों वहीं बैठी रहती। पर जाना तो होगा। सामने एक ऊंचा पहाड़ खड़ा है जिसको हमे पार करना है।


ओह


एक पहाड़ और, अब तो टाँगें भी साथ छोड़ रही हैं।  मैने सोचा


पर कोई चारा नही है, मैं जंगल के बीचों बीच हूँ और पहाड़ को पार करके ही गाँव मैं पहुंचा जा सकता है और उस गाँव से होकर सड़क तक जाया जा सकता है।


खैर मैने धीरे धीरे जंगल का पूरा आनंद लेते हुए इस 1 घंटे की वॉक को 3 घंटों मे पूरा किया।  हमने रास्ते में यहाँ वहां बिखरे पाइन  के फलों को भी चुना।



जल्दी किस बात की है।  इस जंगल को जब तक अपनी स्मृतियों  मे न उतार लूँ तब तक यहाँ आने का फायदा ही क्या है। मैं यहाँ आने भर के सरोकार से थोड़े ही आई हूँ।  इस जंगल का एक टुकड़ा अपने भीतर सॅंजो कर अपने साथ ले जाऊंगी। जो देवदार के कच्चे फलों-सा महकेगा मेरी स्मृतियों मे। यह सोचते सोचते मैं पहाड़ भी पार कर गई और सामने एक खूबसूरत गाँव मेरा इंतिज़ार कर रहा था।  लकड़ी के बने काठ कोनी वाले घर और उनमें बसे लोग। किसी पेंटर के कैनवास जैसे।


उन घरों के झरोखों से महिलाएँ और बच्चे झाँक रहे थे।  मैने हाथ हिला कर अभिवादन किया। यहीं गाँव के पास ही एक ग्यारहवीं शताब्दी का शिव मंदिर है। कहते हैं इस मंदिर की बड़ी मान्यता है। मैने मंदिर की कुछ तस्वीरें खींची। ये वाक़ई एक प्राचीन मंदिर है।



हमे होटल पहुँचते पहुचते दोपहर हो चली थी। भूख भी ज़ोरों की लग रही थी। हमने खाना पीना खाया और आराम करने चले गए। जंगल की सैर के बाद पैर दुखने लगे थे। मुझे स्पा की याद आई। फिर क्या था पहुँच गई स्पा। ट्रॅकिंग के बाद स्पा विज़िट की बात ही कुछ और है। जिस तरह शिवादया रिज़ॉर्ट को पेरफक्शन के साथ बनाए मे कोई कसर बाक़ी नही रखी गई उसी तरह इस स्पा को भी बड़े क़रीने से बनाया गया है।



नेशनल और इंटरनेश्नल मसाज के साथ जकुज़ी, स्टीम बाथ सभी कुछ तो है यहाँ। एक बात मुझे यहाँ की बहुत अच्छी लगी। चाहे वो कुक हो या स्पा मे थैरेपिस्ट सभी प्रोफेशनल्स ट्रेंड हैं और एक्सपीरियेन्स वाले हैं। कोई ताज होटेल्स से आया है तो कोई रेडीसन से। शायद इसी लिए इनकी प्रेज़ेंटेशन इतनी परफैक्ट है।


हमारी आइटिनरी के हिसाब से शाम को कुछ खास होने वाला था। मुझे उसका बेसब्री से इन्तिज़ार था।



जी हाँ शाम को खास हमारे लिए पट्टू सेशन का आयोजन किया गया था जोकि यहाँ के पारंपरिक पोशाक है। नज़दीक के गाँव से दो हिमाचली महिलाएँ अपने साथ पट्टू लेकर आईं थी और एक एक कर हम सबने इस पोशाक को पहना। पट्टू एक हाथ से बना ऊनी वस्त्र होता है। आप इसे 10 मीटर की ऊनी साड़ी भी मान सकते हैं। हिमाचल की महिलाएँ इस वस्त्र को पहनती हैं।  इसे पहनने का तरीका साड़ी से थोड़ा भिन्न है। पट्टू एक प्रकार का क़ीमती वस्त्र है और इस पर बने बेल बूटों के आधार पर इस की क़ीमत बढ़ती जाती है। एक पट्टू की क़ीमत तीन हज़ार से लेकर 10-15 हज़ार तक होती है।


हम सब ने पट्टू सेशन को खूब एंजाय किया। शिवादया मे हमारे दो दिन कैसे बीत गए पता ही नही चला। सच कहूँ तो यहाँ आकर एक बार भी मनाली के बिज़ी बाज़ार मे जाने की इच्छा नही हुई। यहाँ इतना कुछ है जीने और महसूस करने को कि आपका मन ही नही करेगा कि रिज़ॉर्ट से बाहर भी जाया जाए।


 लेकिन फिर भी आप सैर सपाटा करना चाहते हैं तो मनाली मात्र 12, रोहतांग पास 63, सोलांग वैली 26 किलोमीटर दूर है। नग्गर बहुत नज़दीक है, मात्र 8  किलोमीटर की दूरी पर।


फिर मिलेंगे दोस्तों किसी और मोड़ पर

किसी और दिलकश नज़ारे के साथ। तब तक आप बने रहिये मेरे साथ

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा ० कायनात क़ाज़ी